जब गंदा रहना ही झोपड़पट्टी की लड़कियों के लिए हथियार बन जाए..!

जीवन कई तरह की घटनाओं, परिघटनाओं, प्रतिवादों, प्रतिफलों, संघर्ष, संयोग, साहस औऱ इन सबसे ऊपर अनिश्चितताओं का समुच्चय है. इन सबके बीच से वो निकलता रहता है और कई बार जो हासिल होता है, उसपर यकीन करना आसान नहीं होता. जब कुछ नहीं होता है उस वक्त अकारण ही बहुत कुछ हो जाने और जब कारणवश कुछ-कुछ सहेजकर बहुत कुछ करने की कोशिश की जाए तो अचानक सबकुछ बिला जाने की स्थितियां, इस जीवन की अनिश्चितता का प्रमाण हैं. मेरी मुलाकात एक ऐसे आदमी से हुई जो अनिश्चितताओं की ही उपज है. करीब डेढ महीने पहले मेरे दफ्तर में मेरे एक सहयोगी के माध्यम से वो मुझसे मिले. शुरुआती दो मुलाकातें सीमित रहीं और जिस सिलसिले में हम बैठे, हमारी बात उसी के ईर्द गिर्द बनी रही. एक रोज मैने उनको अपने फ्लोर पर घूमते देखा, काम में लगा था लिहाजा ध्यान नहीं दे पाया. कुछ रोज बाद वो मेरे पास आए. शिष्टाचार में मैंने कहा कहिए, सब ठीक? वो अपनी भोली सी हंसी के साथ आहिस्ता आकर मेरी बगल वाली कुर्सी पर बैठ गए. मैं थोड़ी फुर्सत में था, इसलिए बात दोनों के बीच चल पड़ी. कुछ देर बाद देवेंद्र अपनी जिंदगी मुझे सुनाने लगे और मेरी आंखो के सामने कोई फिल्म चलने लगी. मैं दम साधे सुनता रहा और जब उन्होंने कहा कि सर बस यही है मेरी कहानी तो मैंने अपनी कुर्सी में खुद को दोबारा सहेजा, थोड़ा सीधा हुआ और बोतल से पानी के दो घूंट लिए. पिछले 20-25 मिनट में मेरे लिए वो आदमी जो उससे पहले था पूरी तरह बदल चुका था. कई सवाल मन में कौंधे और कई बार लगा जब कभी हार तय सी लगती हो तो ऐसे लोगों को पास रखना चाहिए. मैं जिस आदमी का जिक्र कर रहा हूं, उनका नाम है देवेंद्र. देवेंद्र गुप्ता. एक संस्था है लाडली फाउंडेशन, देश-दुनिया में उसकी पहचान है, उसी संस्था को चलाते हैं देवेंद्र. लाडली फाउंडेशन देश, खासकर दिल्ली-एनसीआर में बच्चियों की पढाई, उनके स्वास्थ्य, सुरक्षा और विवाह का जिम्मा उठाता है. इस संस्था की प्रतिष्ठा का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि यूनाइटेड नेशंस ने भारत की जिन चुनिंदा संस्थाओं को यहां अपनी तरफ से किए जा रहे काम के बारे में राय देने को अधिकृत किया है,लाडली उनमें से एक है. देवेंद्र के जीवन के बारे में फिर कभी क्योंकि ये वो सफर होगा जो बहुत दूर तक चलेगा. निहायत शरीफ, हंसमुख, सहज, भावुक और उम्र से कहीं ज्यादा पके अनुभवों से भरे इंसान हैं देवेंद्र. मैने इतना सबकुछ आज इसलिए लिखा क्योंकि एक दिन पहले ही रात में दफ्तर से निकलने के बाद मैं देवेंद्र के साथ बैठा. उनका हफ्तों से ये आग्रह था कि डिनर साथ करुं. इस बार दिन से ही उन्होंने मुझसे संपर्क साध रखा था और रात में हम दोनों साथ बैठ भी गए. इस बैठने ने मुझे रातभर सोने नहीं दिया. घर लौटने के बाद मुझे उन डरावनी कहानियों ने देर तक बेचैन रखा जो देवेंद्र ने सुनाईं. झुग्गी बस्तियों की बच्चियों, झारखंड-बंगाल-उड़ीसा से लाई गई बच्चियों औऱ उनके साथ होनेवाले सलूक की हजारों घटनाएं देवेंद्र के पास दर्ज हैं. सारी की सारी रुह कंपा देनेवाली. बस एक वाकया से अंदाजा हो जाएगा. एक मां जो झुग्गी बस्ती में रहती हैं, वो अपनी बेटी को नहाने नहीं देती, उसे गंदे कपड़ों में रखती है, उसके शरीर से बदबू आती रहे- यह उसे अच्छा लगता है, क्योंकि बेटी सुंदर है. उसकी गंदगी ही उसको बचा सकती है, मां के पास बेटी को बचाने का यही उपाय या हथियार है. दो घंटे देवेंद्र के साथ कैसे कट गए पता ही नहीं चला. वे जो काम कर रहे हैं, उनको इस देश के हर आदमी की तरफ से मदद मिलनी चाहिए. हर माता-पिता अपनी औलाद को सुरक्षित देखना चाहते हैं. ऐसा वे भी चाहते हैं, जिन्हें अपने बच्चों, खासकर बेटियों की असुरक्षा का डर चौबीसों घंटे बना रहता है.

राणा यशवंत, वरिष्ठ पत्रकार की वाल से

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