ब्रितानी जेल का फाटक तोड़ने वाले 1857 के महान क्रांतिकारी शेख रज्जब अली को भूल गयी सरकार..

माटी के लाल आजमियों की तलाश में..

@ अरविंद सिंह
आजमगढ़ एक खोज..

उनकी निशानदेही अब बस एक मजा़र भर है. जहाँ पर आप उस महानायक की महागाथा और पत्थरों पे तामीर हुई इबारत में कैद स्मृतियों को केवल महसूस कर सकते हैं. ठीक सामने इस विप्लवकारी और हाहाकारी व्यक्तित्व के शिना़ख्त की एकमात्र गवाह ‘मां तमसा’ की, कल-कल निनाद करती जलराशि में आज भी इस महानायक की तस्वीर महसूस की जा सकती है कि -कैसे ब्रितानी संगीनों की घेराबंदी में छलनी हुए सीने को माँ तमसा (नदी)ने अपने आगोश में ले आंचल पे सुला लिया होगा. कैसे इस रणबांकुरे की लाश को देखकर भयभीत ब्रितानी फौज के सिपाही तीन दिन तक दूर से ही भयानक डर और अनहोनी से निहारते रहें होगें कि-“कहीं यह खूंखार रज्जब अली, फिर से न उठ खड़ा हो जाए और उनके सर क़लम कर दे.”
दरअसल बम्हौर (मुबारकपुर, आजमगढ़) में जन्मे 1857 की क्रांति के इस महानायक की मज़ार को जब-जब देखता हूँ तो कल्पनाओं में वह दृश्य एकबार मानस में नाच सा जाता है. जैसे कोई फिल्म अचानक से सभी दृश्यों को जीवंत कर गयी हो.
1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की गवाही देती माँ तमसा जो आजमगढ़ के विपुल और विराट भूगोल पर बहती हुई आज तक निर्बाध चली आ रही हैं। इस महान क्रांतिकारी शेख रज्जब की कहानी बयां करती है, कोई सुने या न सुने…लेकिन तमसा उस कहानी को अपने आंचल में आज भी लिए समय की रेखा पर सुनाती चलती जा रही है, जिसकी रवानी में आजमगढ़ की जवानी की देशभक्ति, बहादुरी और पराक्रम की कहानी है.

प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 के अमर शहीद रज्जब अली की वीरता की कहानी को तमसा बयां करती है। यह अलग बात है कि इतिहासकारों ने रज्जब अली की वीरता और दास्तानों की उपेक्षा की है। आती जाती सरकारों ने इस क्रांतिकारी की गाथा को संजोने और संवारने का कोई सार्थक और ईमानदार पहल नहीं किया। जबकि सच तो यह है कि- इतिहास के पन्नों में हिन्दुस्तान के पहले विप्लव का जब जब पृष्ठ खोला जाएगा, आजमगढ़ और पूर्वी पट्टी के इस महानायक के बिना हर पन्ना अधूरा और स्याह सा दिखेगा.
आजमगढ़ जिला मुख्यालय से एक पक्की सड़़क रेशमी नगरी मुबारकपुर को जाती है, यहीं रास्ते में बम्हौर का एक रास्ता फूटता है, जो सीधे रज्जब अली के जन्मग्राम को ले जाता है. यही एक जमींदार परिवार में इस अमर क्रांतिकारी का जन्म हुआ था। जिसने समय की तहरीर पर क्रांति की इबारत लिखी और आजमगढ़ को वीरता और बहादुरी की नई मिसाल दे दी
उस समय देश में ब्रितानिया हुकूमत का अत्याचार और शोषण चरम पर पहुंच रहा था। एक मत के अनुसार 1837 से 1857 तक लगभग एक लाख एकड़ भूमि को ब्रितानी हुकूमत ने लगान के नाम पर नीलाम कर दिया था. जिसको लेकर लोगों में भारी असंतोष और रोष था. शेख रज्जब इस अन्याय के विरुद्ध अंग्रेजों से मोर्चा ले रहे थे. उन्होंने अंग्रेजों से मोर्चा लेने के लिए लगभग चार हजार नौजवानों की गुरिल्ला युद्ध करने वाली एक सेना बना रखी थी और अक्सर उनकी मुठभेड़ अंग्रेजी फौज से होती रहती थी। रज्जब का आतंक अंग्रेज़ी फौज पर इस कदर था कि वे रज्जब अली के नाम से थर-थर कांपते थे। रज्जब अली की मजबूत मोर्चा बंदी और संगठन के कारण उन्हें पकड़ने या मारने के लगभग सभी प्रयास असफल हो रहे थे।
जब 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का बिगुल बजा तो आजमगढ़ की क्रांतिकारी धरती भी पीछे नहीं रही। बल्कि बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया. यहां भी अंग्रेज़ी पांव को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए संघर्ष जारी थे. ऐसी परिस्थितियों में रज्जब अली ने अब अंग्रेजों के विरुद्ध सीधा मोर्चा खोल दिये और पूरे जनपद में घूम-घूम कर लामबंदी करने लगे। जगह-जगह उनकी अंग्रेजों से मुठभेड़ होने लगी। रज्जब अली की शहर से कोई 7 किमी पर स्थित गाँव मोहब्बतपुर के निवासी जगबंधन सिंह से दांत काटे रोटी का संबंध था. दोनों दोस्त और क्रांतिकारी थे. और क्रांति की अलख जगाने में संलग्न थे. अंग्रेज़ी फौज के सिपाहियों ने एक दिन रज्जब अली के दोस्त जगबंधन सिंह को घर से गिरफ्तार कर आजमगढ़ जेल उठा ले गयें. कई दिनों तक जब वे घर नहीं आए तो जगबंधन सिंह की पत्नी के संदेश को पाकर शेख रज्जब अली अपने साथियों को लेकर सीधे अंग्रेज़ी जेल पर ही धावा बोल दिया और जेल का फाटक तोड़कर अपने मित्र जगबंधन सिंह को रिहा करा ले.
सच तो यह है कि गंगा जमुनी रवायत की यह आजमगढ़ी कहानी आप को एक नयी संदेश भी देगी.
एक रिपोर्ट के अनुसार-अंग्रेजों ने जगबंधन सिंह के पूरे गांव की मोर्चा बंदी कर दी ताकि यह खबर बाहर न फैल सके । लेकिन जगबंधन सिंह की पुत्री अंग्रेजों की आंखों में धूल झोंककर गांव से किसी तरह निकलने में कामयाब हो गयी और सीधे बम्हौर पहुंच कर जब रज्जब अली को यह सूचना दी कि- चाचा! पिताजी को अंग्रेज पुलिस उठा ले गयी। इतना सुनते ही क्रांतिकारी रज्जब अली का खून खौल उठा और उन्होंने अपनी चार हजार नौजवानों की सेना के साथ सीधे आजमगढ़ जेल पर हमला बोल दिया। उन्हें देखते अंग्रेज़ कोतवाल घोड़े पर चढ़ गया और सिपाहियों को फायरिंग के लिए पोजीशन लेने का आदेश दिया। तभी रज्जब अली अकेले ही आगे बढ़े और उन्होंने कोतवाल को घोड़े से खींच कर नीचे पटक दिया। अंग्रेज़ी अफसर की यह दशा देख सिपाही भाग खड़े हुए। रज्जब अली ने जेल का फाटक तोड़ दिया और जगबंधन सिंह तथा अन्य बेगुनाह लोगों को आजाद करा लिया। तब तक अंग्रेजी फौज आ पहुंची और फिर कोहराम मच गया। रज्जब अली घोड़े पर सवार हुए और पलक झपकते ही कई अंग्रेजों की गर्दन उतारते हुए आगे बढ़ गयें । अंग्रेजों में भगदड़ मच गई। पूरे जिले में हर्ष फैल गया कि रज्जब अली आ गए हैं। प्रतिक्रिया में नगर की सड़कों पर चारों ओर से अंग्रेजी फौज ने घेराबंदी शुरू कर दिया । अंग्रेजों ने फायरिंग शुरू कर दी। रज्जब अली की सेना बिखर गई और वे मोर्चा लेते हुए ममरखापुर गांव पहुंच गए। वहां अंग्रेजी फौज भी पहुंच गई और रज्जब अली को ललकारने लगी ‘घर में क्यों छिपे हो बाहर आओ।’ इतना सुनते ही रज्जब अली उस घर की छत पर गए और तलवार खींच पीछे अंग्रेजों के बीच कूद पड़े। कई अंग्रेजों की गर्दन साफ कर तमसा नदी की ओर बढ़े और उसमें कूद गए। अंग्रेजों ने फायरिंग शुरू कर दी। तभी एक गोली रज्जब की पीठ में लगी और कुछ गोली सीने में लगा.तभी कई गोलियां उनके सीने में लगी लेकिन उन्होंने नदी पार कर ली। अब अंग्रेजों को यकीन हो गया कि रज्जब की मौत हो चुकी है तो वे नदी पार कर आए और रज्जब अली का सिर धड़ से काटकर अलग कर दिया और एक बांस में टांगकर उसे तीन दिन तक इलाके में इस प्रायोजन से घुमाया कि कोई अंग्रेजों के खिलाफ बगावत की हिम्मत न कर सके। जब 1857 की 150वीं जयंती मनाई जा रही थी तो सबने सबको याद किया लेकिन रज्जब अली को लोग भूल गए। 20 जून को उनकी शहीदी दिवस है.
(संदर्भ: जागरण, डा०शारिक का शोध, जनश्रुति, और प्रतीक चिन्ह)

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