गाँव का एक लड़का पत्रकारिता कर रहा था। शहर की कंपनी वालों को बुरा लग गया। गाँव के लड़के को जेल भिजवा दिया। उन्हें पता नहीं था कि शहर में गाँव के बहुत से लोग रहते हैं। एक दिन इसी शहर से गाँव गाँव निकल आएगा। मनदीप पुनिया की रिहाई के लिए आज दिल्ली में पत्रकारों ने दिल्ली पुलिस के मुख्यालय के सामने मार्च किया है।
शशिभूषण वरिष्ठ पत्रकार की वाल से..
“आंदोलन कोई मेला नहीं है.. आंदोलन निरंकुश सत्ता को झकझोरने के लिए ही किया जाता है.. तानाशाह की रीढ़ तोड़ने के लिए किया जाता है..”
– मंदीप पुनिया, स्वतंत्र पत्रकार
मैंने जितना देखा जाना मंदीप पुनिया आजकल दबायी और मारी जा रही पत्रकारिता की वह युवा आँख और भरोसा दिलाने वाली आवाज़ हैं जिसमें ग़लत चाहे कितना ही बलशाली या वैधानिक ड्रेस में क्यों न हो ठीक-ठीक ग़लत दिखता और सुनाई पड़ता है। मंदीप केवल पत्रकार नहीं अपनी जान की कीमत पर सच, सरोकार, संघर्ष और दमन को दमन कह सकने वाला निडर योद्धा है।
सुनने में आया है कि किसान आंदोलन की रिपोर्टिंग के बीच से ही अचानक मंदीप को उठा लिया गया। ऐसा क्यों किया गया समझ से परे है। वे कहाँ हैं? उन पर क्या आरोप हैं किसी को नहीं मालूम। यह बड़ी चिंता, दुःख और डर पैदा करने वाली बात है। जब तक उन्हें छोड़ नहीं दिया जाता किसी को अच्छा कैसे महसूस हो सकता है। समझ में नहीं आता ऐसा क्यों हो रहा है ? इसमें किसका भला है और यह कहाँ जाकर रुकेगा ?