संवाद की शक्ति-बिना ओहदे के सबसे बड़ी काय
–अरविंद कुमार सिंह
जो किसी ओहदे पर होते हैं, उनके पास प्रचार प्रसार का एक व्यवस्थित तंत्र, संसाधन औऱ टीम होती है। वे विज्ञापन भी दे सकते हैं। लेकिन गांधीजी किसी ओहदे पर नहीं रहे। फिर भी भारतीय स्वाधीनता संग्राम में शामिल सभी राजनेताओं में गांधीजी ही एकमात्र हैं जिनकी मौत के जितने साल हो रहे हैं, उतनी ही उनके काया का विस्तार होता जा रहा है। उनके ऐसे वैचारिक विरोधी जिनकी तीन पीढ़ियां गांधीजी के खिलाफ घृणा अभियान में लगी थीं, वे अब अगली पीढियों को यह बताने में लगी हैं कि गांधीजी उनके थे। उनके परिसरों में गांधीजी की तस्वीरें लगी हैं और गांधीजी को वे वैसे ही याद करने लगे हैं, जैसे बाकी लोग।
लेकिन बिना किसी ओहदे के गांधीजी का काया का लगातार विस्तार कैसे होता रहा है, यह अपने आपमें दिलचस्प अनुसंधान का विषय है। संचार का विद्यार्थी होने के नाते मैं इतना समझ पा रहा हूं कि यह सब गांधी के संवाद का कमाल है। भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में जिस व्यक्ति का कोई स्थायी ठिकाना तक न रहा हो और जो लगातार जीवन के बड़े हिस्से में भटकता ही रहा हो, वह एक साथ इतने लोगों के साथ कैसे संवाद बनाए रख सकता था। वे जब सबसे व्यस्त राजनेता थे तो भी किसी चिट्ठी का जवाब देना नहीं भूलते थे। उनकी चिट्ठी आकार में छोटी होती थी लेकिन उसमें कोई न कोई शिक्षा और विचार जरूर होता था।
भारतीय डाक को कई मौकों पर गांधीजी को लिखी चिट्ठियों के नाते काफी परेशानी उठानी पड़ती थी। दुनिया भर से तमाम पत्र केवल महात्मा गांधी-इंडिया लिख कर आ जाते थे। महात्मा गांधी, इंडिया या महात्मा गांधी, जहां कहीं हो जैसे पते पर उनके नाम से डाक आती रहती थी औऱ डाक विभाग उनको खोज कर उनके पास तक चिट्ठी पहुंचाता रहा। हिज हाईनेस महात्मा गांधी मार्फत गवमेंट रूलिंग इंडिया, महात्माजी जहां हैं वहां पत्र उन्हें मिले और टू ग्रेट अहिंसा नोबल, इंडिया जैसे पतों पर भी गांधजी को चिट्ठियां मिलती थीं।
एक बार स्पेन की एक 16 साल की बालिका मेरी ने उनको चिट्टी लिखी जिस पर पता लिखा था – तीन बंदरों के सरदार, लंगोट वाले बाबा को, जो हाथ में छड़ी रखते हैं और लकड़ी की चप्पलें पहनते हैं। उसने चिट्ठी में गांधीजी से निवेदन किया कि वे लिफाफे पर लिखे पते का मजाक नहीं उड़ाएंगे और अपना जवाब देते समय सही पता लिख भेजेंगे। जब पोस्टमैन ने यह चिट्ठी गांधीजी को दी तो पहले गांधीजी खूब हंसे लेकिन इसका जवाब भी दिया।
गांधीजी को मिलने वाली कुछ चिट्ठियों में पते की जगह उनकी तस्वीर चिपका दी जाती थी। 17 साल की मरीना ने न्यूयार्क से उनको ऐसी ही एक चिट्ठी लिखी और बताया कि वह उनके बारे में बहुत चर्चा सुन चुकी है लेकिन पता न होने के कारण चित्र चिपका कर भेज रही है। यही मरीना बाद में भारत आकर कुष्ठ रोगियो की सेवा में समर्पित हुई।
गांधीजी छह भाषाओं में लिख सकते थे और दक्षिण भारतीय भाषाओं समेत 11 भाषाओं में हस्ताक्षर कर लेते थे। वे दाहिने और बाएं दोनों ही हाथों से लिख लेते थे यह अलग बात है कि उनकी हैंडराइटिंग कोई खास अच्छी नहीं थी। लेकिन बाएं हाथ की लिखावट बेहतर थी। वे भीड़ के बीच में और जनसभाओं में ही नहीं अंधेरे में भी चिट्ठियों का जवाब लिख लेते थे।
गांधीजी ने लोगों से जुड़ने के लिए तमाम साधनों का उपयोग किया। लोगों से सीधे जुड़ने के लिए उनके जितनी यात्रा कोई और नेता नहीं कर सका। हमारे राष्ट्रीय नायकों में महात्मा गांधी सबसे बड़े संचारक माने जाते हैं। बड़े से बड़े और गरीब से गरीब आदमी के बीच संवाद बनाए रखने के लिए हरेक उस चिट्ठी का जवाब देते थे। वे ही दुनिया के एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं जिन पर 150 देशों के डाक प्रशासनों ने डाक टिकट जारी किया जिसमें उनके जीवन के करीब हर पहलू को शामिल किया जा चुका है।