आत्मा से निकली यह आवाज़, ख़ामोशी की चादर ओढ़ परमात्मा में एकाकार हो गई..

@ डॉ अरविंद सिंह
लता मंगेशकर केवल स्वर कोकिला ही नहीं थीं, बल्कि भारतीय संगीत और संस्कृति की पहचान भी थी. सच कहें तो वह आत्मा की आवाज़, उस परमात्मा की नेमत थी. या यूँ कहें तो आत्मा और परमात्मा के बीच एक संवाद करती आवाज़ थी.
दुनिया में भारतीयता की पहचान जिन भी कारणों से थी, उसमें से एक कारण यह मोहक आवाज़ भी थी. जिस आवाज़ को सुनकर कई पीढ़ियां गर्व से कह सकती थी कि- ‘यह आवाज़ हमारे हिन्दुस्तान की पहचान है’. भविष्य में बहुत से लोग यह कहेगें कि- ‘हमने इस स्वर कोकिला को देखा था’.
दुनिया की असंख्य भाषाओं और संवेदनाओं को अपनी स्वर लहरियों में उतार देने वाली हमारी लता ताई- इस फा़नी दुनिया को अलविदा कह दिया..!
दीनानाथ मंगेशकर की तीन बेटियों में लता मंगेशकर , ऊषा मंगेशकर और आशा भोसले में लता मंगेशकर सबसे बड़ी थीं.
वह आजीवन संगीत और गायन की पूजा करती रहीं. जिसके लिए अविवाहित रहीं.
भारतीय संगीत और गायकी को दुनिया में अद्वितीय पहचान दिलाने में इस पुरकशिश आवाज़ का बहुत बड़ा योगदान रहा.
कितनी पीढ़ियों की दिल की आवाज बनी और कितनों के दर्द और वेदना को स्वर इस आवाज़ ने दिया.
कहते हैं संगीत और आवाज़ की कोई सरहद नहीं होती है.
वह निर्मुक्त खुले आकाश में किसी पक्षी की तरह विचरण करते हुए दिलों के तार को झंकृत करने की अदभुत क्षमता रखती है.
वह नैराश्य मनुष्य के जीवन में नई स्फूर्ति और जान फूंक सकती है. लता मंगेशकर की यह आवाज़, न जाने कितने घायल हृदय की आवाज बन गयी.
भारत-चीन युद्ध के समय, जब देश पराजित हुआ, तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू भीतर से आहत और टूट चुके थे और देश पराजजन आवाज़ बन किया- वह थी स्वर कोकिला लता मंगेशकर की आवाज और गीत था- ऐ मेरे वतन के लोगों.. जरा आंख में भर लो आंसू…
लता के कंठ से निकले इस गीत ने देश में जान फूंक दिया. देश नये उत्साह और आत्मविश्वास से लबरेज़ हो उठा और समय की रेखा पर नई इबादत लिखने के लिए मचल उठा. यह थी लता और उनकी आत्मा से निकली आवाज़.
आज यह आवाज़ की पीड़ा से बेजार था, तो ऐसे घोर निराशा जनक परिस्थितियों में देश को संभालने का काम जिस एक आवाज़ ने ख़ामोशी की चादर ओढ़ कर उस परमात्मा में एकाकार हो गयी, जो आत्मा से निकली थी. अलविदा लता ताई!! हम गर्व से अपने आने वाली पीढ़ियों को सुनाएंगे कि हमने लता ताई को गाते हुए देखा था….

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