नज़रिया/आकलन :
० सपा और भाजपा को भीतरघात का भी है जबरदस्त खतरा.
० भाजपा को बाहरी प्रत्याशी उतारने से हो सकता है नुकसान.
० सपा पर भी डमी प्रत्याशी उतारने का है आरोप.
@ डा०अरविंद सिंह #त्वरितटिप्पणी
आजमगढ़ से आखिर कौन पहुंचेगा देश की सबसे बड़ी पंचायत स़ंसद में, क्या वह बसपा के शाह आलम गुड्डू जमाली होगें, सपा के सुशील आनंद होगें या फिर वह भाजपा के भोजपुरी कलाकार दिनेश लाल यादव-निरहुआ होगें. आजमगढ़ किसको दिल्ली भेजेगा यह तो 26 जून को मालूम हो जाएगा. लेकिन वर्तमान परिस्थितियों का सम्यक् मूल्यांकन करेंगे तो यह लड़ाई अभी त्रिकोणीय होते हुए भी बसपा की तरफ कुछ झूकी नज़र आ रही है. इसका कारण सपा और भाजपा से प्रत्याशियों का चयन.
2014 में सपा उत्तर प्रदेश में सरकार में थी.2014 के आजमगढ़ लोकसभा सीट पर स्वयं मुलायम सिंह यादव ने 3 लाख 40 हजार वोट पाकर बड़ी मुश्किल से जीत हासिल की. तब बीजेपी से रमाकांत यादव को 2 लाख 77 हजार, तो बसपा के उम्मीदवार शाह आलम उर्फ गुड्डू जमाली को 2 लाख 66 हजार वोट मिले थे. बसपा के जमाली ने उस दौरान उम्मीद से कहीं बढ़कर रिजल्ट दिय़ा था, क्योंकि एक तरफ वो मुलायम सिंह जैसे कद्दावर नेता से जूझ रहे थे, जिसके दल की सरकार थी. तो दूसरी तरफ नरेंद्र मोदी की सुनामी भी उन्हें झेलनी थी.
बावजूद उन्होंने अप्रत्याशित परिणाम दिए. जबकि 2019 का चुनाव सपा- बसपा मिलकर लड़े थे, तब अखिलेश यादव 620889 वोट पाए थे, जबकि भाजपा प्रत्याशी के रूप में दिनेश लाल यादव ‘निरहुआ’ को 360898 वोट मिला था.
आज की परिस्थितियों में खासा परिवर्तन दिख रहा है.
पहला, यह उपचुनाव है और सत्ताधारी दल भाजपा ने एकबार फिर दिनेश लाल यादव को चुनावी मैदान में उतारा है.
यदि भाजपा अपनी पूरी ताकत लगा देती है, और स्थानीय गुटबाजी की शिकार नहीं होती है, तो, तो बात बन सकती है, अन्यथा दिनेश लाल यादव, स्थानीय स्तर पर भाजपा के चहेते प्रत्याशी तो नहीं हैं. क्योंकि दबी जुबां से भजपा का स्थानीय काडर उन्हें प्रवासी और पैराशूट नेता ही मानता है, जो पिछली बार हारने के बाद आजमगढ़ छोड़, भोजपुरी फिल्मों की तरफ मुड़,( समय देने लगें) चले, आजमगढ़ में कम ही नज़र आए. वैसे राजनीति पार्ट टाइम टास्क तो बिल्कुल भी नहीं है. बावजूद आज भाजपा सत्ता में है.
यदि भाजपा, स्थानीय कार्यकर्ताओं को एकत्रित करके लड़ाई को पूरी ऊर्जा के साथ लड़ती है तो, आजमगढ़ में कमल खिलने के आसार बन सकतें हैं. नहीं तो 2019 से बेहतर परिस्थिति 2022 में दिनेश लाल यादव के लिए नहीं दिखती है. वहीं सपा, आज सत्ता से बाहर है, 2019 जैसी गठबंधन की स्थिति भी नहीं है. जिससे की दलित प्रत्याशी सुशील आनंद के अनुकूल परिस्थितियां बनी हो, यहाँ का दलित तो आज भी, खासतौर पर आजमगढ़ लोकसभा क्षेत्र में, बसपा को ही अपना वैचारिक दल मानता है. मुसलमान निर्णायक जरूर होगा, अगर वह, अपनी जाति देखेगा, तो जमाली के साथ जाएगा, अन्यथा सपा के साथ.
वैसे समाजवादी पार्टी में भी स्थानीय यूनिट के लिए लोगों के चहेते प्रत्याशी सुशील आनंद नहीं हैं. यह पार्टी द्वारा एक तरह से थोपे गयें प्रत्याशी ही है. जमाली की स्थिति इन दोनों से भिन्न है. जो मुबारकपुर से अनेक बार विधायक रहने के साथ लगातार आजमगढ़ से कनेक्ट रहते हैं.
फिलहाल सियासत संभावनाओं का खेल है. कुछ भी कभी भी, कही हो सकता है, राजा रंक बन सकता है और रंक राजा..
(लेखक शार्प रिपोर्टर’ का संपादक है)