नज़रिया/आकलन: आजमगढ़ का चुनावी समर : धर्मेन्द्र यादव की इन्ट्री से त्रिकोणीय संघर्ष का तापमान बढ़ा..!

० कमल तभी खिलेगा, जब पिछली बार से होगा निरहुआ का बेहतर प्रदर्शन
० सपा और बसपा का राजनीतिक भविष्य तय करेगा मुसलमान
० जमाली को जीतने के लिए मुस्लिम वोटबैंक पर करना होगा काम
० सपा को सीट बरकरार रखने के लिए मुस्लिम मतों को जोड़े रखने की होगी भारी चुनौती

@ डा०अरविंद सिंह #त्वरितटिप्पणी

आजमगढ़ से आखिर कौन पहुंचेगा देश की सबसे बड़ी पंचायत स़ंसद में, क्या वह बसपा के शाह आलम गुड्डू जमाली होगें, सपा के धर्मेन्द्र यादव होगें या फिर वह भाजपा के भोजपुरी कलाकार दिनेश लाल यादव-निरहुआ होगें. आजमगढ़ किसको दिल्ली भेजेगा यह तो 26 जून को मालूम हो जाएगा. लेकिन वर्तमान परिस्थितियों का सम्यक् मूल्यांकन करेंगे तो यह लड़ाई अभी त्रिकोणीय होते हुए जहाँ पहले बसपा की तरफ कुछ झूकी नज़र आ रही थी, सपा के नये प्रत्याशी धर्मेन्द्र यादव के चुनावी समर में कूदते ही लड़ाई का समाजशास्त्र और भूगोल दोनों ही बदल गया. लड़ाई अब संघर्ष पूर्ण होगी.

जब 2014 में सपा की उत्तर प्रदेश में सरकार थी तो आजमगढ़ लोकसभा सीट पर स्वयं मुलायम सिंह यादव ने 3 लाख 40 हजार वोट पाकर बड़ी मुश्किल से जीत हासिल की थी. तब बीजेपी से रमाकांत यादव को 2 लाख 77 हजार, तो बसपा के उम्मीदवार शाह आलम उर्फ गुड्डू जमाली को 2 लाख 66 हजार वोट मिले थे. मुलायम पर दोनों प्रत्याशियों ने सिस्टम का दुरूपयोग का भी आरोप लगाया था. बावजूद यह लड़ाई इतनी संघर्ष पूर्ण हो जाएगी, किसी ने भी अंदाजा नहीं लगाया था, जबकि सपा सरकार और पूरा सैफई परिवार आजमगढ़ में कैंप किए हुए था.
बसपा के जमाली ने उस विषम राजनीतिक परिस्थितियों में भी उम्मीद से कहीं बढ़कर रिजल्ट दिय़ा था, जिसकी चर्चा काफी दिनों तक होती रही और आज भी होती है.


क्योंकि उस चुनाव में एक तरफ वो मुलायम सिंह जैसे कद्दावर नेता से जूझ रहे थे, जिसके दल की सरकार थी, सरकारी सिस्टम था. तो दूसरी तरफ नरेंद्र मोदी की सुनामी भी उन्हें झेलनी थी. बावजूद उन्होंने अप्रत्याशित परिणाम दिए.
जबकि 2019 का चुनाव सपा- बसपा मिलकर लड़े थे, तब अखिलेश यादव 620889 वोट पाए थे, जबकि भाजपा प्रत्याशी के रूप में दिनेश लाल यादव ‘निरहुआ’ को 360898 वोट मिला था. अब अगर 2019 के मतों को 2022 के उपचुनाव में दो बराबर भागों में विभाजित कर भी देखा जाए तो, सपा और बसपा दोनों को ही 3 लाख से ऊपर मत मिलता है. लेकिन 2019 और 2022 के दरमियान एक विधानसभा का चुनाव गुजर चुका है. जिसमें आजमगढ़ की सभी दस सीटों पर सपा का कब्जा हो गया. यह एक बहुत बड़ा फैक्टर है, मतों के ध्रुवीकरण का. सपा के विधायक अपने-अपने क्षेत्रों में जितना वोट वे स्वयं पाए थे, यदि वे उसी को मेंटेन किए रहे तो भी सपा के लिए आजमगढ़ सीट बरकरार रखना बहुत मुश्किल नहीं होगा. वैसे यदि प्रत्याशी सुशील आनंद रहे होते तो यह मुश्किल था, कारण स्थानीय गुटबाजी खुलकर आ जाती. हालांकि सपा से टिकट रमाकांत यादव और जिलाध्यक्ष हवलदार यादव भी चाह रहे थे, लेकिन नेता जी(अखिलेश यादव) के परिवार के नाम इनकी आवाज दबसी गयी. सूत्रों की माने तो डिम्पल यादव का आजमगढ़ ना आना बिल्कुल पारिवारिक कारण था. जिसमें अखिलेश यादव के छोटे बच्चों की पढ़ाई और परवरिश भी एक प्रमुख कारण था. जो जरुरी भी था.


तब और आज की परिस्थितियां काफी बदल चुकी हैं. इतने दिनों में गंगा जमुना और आजमगढ़ की तमसा में अथाह जलराशि बह गयी है. अब समाजवादी पार्टी सत्ता से बाहर विपक्ष की भूमिका में है और उत्तर प्रदेश में बाबा बुलडोजर का राज है. यह एक उपचुनाव है, जिसमें सत्ताधारी दल भाजपा ने एकबार फिर अपने पुराने प्रत्याशी दिनेश लाल यादव को ही चुनावी मैदान में उतारा है. सरकारी सिस्टम और सरकार उनके पक्ष में है. यूपी में योगी की दूसरी बार जबरदस्त वापसी हुई है. आजमगढ़ और रामपुर के उपचुनाव से भाजपा को भले ही कुछ खास फर्क न पड़े, लेकिन आजमगढ़ जीतने से, आजमगढ़ को फर्क जरूर पड़ेगा. कारण समाजवादी-गढ़ आजमगढ़ से यदि कमल खिलता है तो योगी और मोदी सरकार दोनों में आजमगढ़ के लिए विकास परियोजनाओं को नयें पंख लग सकते हैं. आजमगढ़ के विकास की हिस्सेदारी लखनऊ और दिल्ली दोनों सरकारों में मिल सकती है. यह एक कटु सत्य है. जिसको इनकार नहीं किया जा सकता है. ऐसी परिस्थितियों में
यदि भाजपा अपनी पूरी ताकत लगा देती है, योगी और मोदी की टीम लग जाती है, प्रत्याशी स्थानीय गुटबाजी का शिकार नहीं होता है, तो बात बन सकती है, और कमल खिल सकता है अन्यथा दिनेश लाल यादव, स्थानीय स्तर पर भाजपा के चहेते प्रत्याशी तो नहीं हैं. क्योंकि दबी जुबां से भाजपा का स्थानीय काडर उन्हें प्रवासी और पैराशूट नेता ही मानता है. बावजूद अगर वे अपने पिछले प्रदर्शन को बेहतर करते हैं या दुहराते ही हैं तो भी लड़ाई भाजपा से होगी. और यदि दिनेश लाल यादव ‘यादव वोटबैंक’ में 10 फीसदी भी सेंध लगाने में सफल रहें,हालांकि जिसकी संभावना बहुत कम है, तो कमल खिल सकता है. क्योंकि भाजपा का वोटबैंक पिछली बार से कम नहीं हुआ, बढ़ा जरूर है.यदि भाजपा, स्थानीय कार्यकर्ताओं को एकत्रित करके लड़ाई को पूरी ऊर्जा के साथ लड़ती है तो, आजमगढ़ में कमल खिलने के प्रबल आसार बन सकतें हैं.

वहीं बसपा प्रत्याशी शाह आलाम गुड्डू जमाली के लिए यह जरुरी है कि वह ‘मुस्लिम वोट बैंक’, जो अभी भी सपा के पक्ष में है, में सेंधमारी कर सके, उनके जीत की परिस्थितियों का निर्माण, मुस्लिम मतों के विभाजन पर ही टिका है. दलित मतों का पूरी तरह ध्रुवीकरण उनके साथ रहेगा, जो एक बड़ा वोटबैंक है. जिसको साधने में वह सिद्धहस्त भी हैं.और मुबारकपुर से बसपा के विधायक रहते हुए वे दलित वोटबैंक के मनोविज्ञान को सबसे बेहतर समझते भी है. सवाल यह कि क्या जमाली मुस्लिम मतों को अपने पक्ष में करने में सफल हो जाएंगे. क्या मुसलमान सपा को छोड़ बसपा के जमाली के साथ जाएगा, मुस्लिम मतों का मनोविज्ञान आज यह है कि- जो भाजपा को हराने की स्थिति में होगा, वह उसके साथ चला जाएगा. जब सपा से सुशील आनंद प्रत्याशी थे तो वह परिस्थितियां जमाली के पक्ष में थी, लेकिन मुलायम परिवार के प्रत्याशी धर्मेन्द्र यादव के आ जाने संघर्ष बढ़ गया. इस उपचुनाव का निर्णायक मत और सपा- बसपा का भविष्य फिलहाल मुस्लिम वोटबैंक पर निर्भर करता, अब देखना है कि वह सपा के साथ बना रहता है, यह जमाली उसमें सेंधमारी करने में कामयाब हो पाएंगे. यह लड़ाई फिलहाल भीषण त्रिकोणीय बन चुकी है.
सियासत संभावनाओं का खेल है. कुछ भी कभी भी, कही हो सकता है, राजा रंक बन सकता है और रंक राजा..
(लेखक शार्प रिपोर्टर’ का संपादक है)

0Shares

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

हिंदी »