आजमगढ़ लोकसभा उपचुनाव से मिले संकेतों को समझने की जरूरत : विजय नारायण

आजमगढ़ कलेक्ट्री कचहरी के पास एक पुराना रेस्टोरेंट है, जिसका नाम है लीडराबाद। इस रेस्टोरेंट को यह नाम वास्तव में आजमगढ़ के विभिन्न राजनीतिक दलों से जुड़े कार्यकर्ताओं ने दिया है। इस रेस्टोरेंट में सभी राजनीतिक दलों से जुड़े नेता और कार्यकर्ता अक्सर एक साथ बैठकर चाय पीते हैं और राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय समस्याओं पर विचार विमर्श करते हैं। अक्सर पत्रकार भी इस रेस्टोरेंट में आ जाते हैं। कभी एक जमाना था कि आजमगढ़ के सांसद और विधायक भी इस रेस्टोरेंट में बैठते थे। ऐसा भी हुआ है कि यहां बैठने वाले लोगों को विभिन्न राजनीतिक दलों की ओर से विधानसभा और लोकसभा का टिकट भी मिला है। आज की राजनीति की यह विडंबना है कि प्रायः सभी राजनीतिक दलों का टिकट ऐसे लोगों को मिलता है जो न राजनैतिक कार्यकर्ता होते हैं और ना जिन्हें राजनीति की समझ होती है। जिन्हें राजनीति की समझ है वह लीडराबाद रेस्टोरेंट में बैठकर टिकट बंटवारे के बाद निराशा के गर्त में राजनीति की गिरावट पर बहस करते देखे जाते हैं।

हाल के लोकसभा उपचुनाव में तीन प्रमुख दलों भाजपा, सपा और बसपा का टिकट किसे मिलेगा यह कोई नहीं जानता था। पहले ऐसा होता था कि टिकट के दावेदारों के आवेदन पत्रों पर जिला समिति विचार करती थी। अब यह सिलसिला पूरी तरह समाप्त हो चुका है। अखिलेश यादव के लोकसभा की सीट से त्यागपत्र देने के बाद सपा का उम्मीदवार कौन होगा यह कोई नहीं जानता था लेकिन एक अच्छी बात यह देखी गई कि कुछ स्थानीय नेता और कार्यकर्ता टिकट की दावेदारी पेश करना चाहते थे किंतु वे अच्छी तरह जानते थे कि यह सीट मुलायम सिंह परिवार के लिए एक तरह से आरक्षित हो गई है। लोकसभा उपचुनाव की घोषणा हो गई तो सपा के टिकट के बारे में हल्ला यह हुआ कि बसपा के पूर्व सांसद बलिहारी बाबू के बेटे चुनाव लड़ेंगे। अगले ही दिन यह खबर आई किअखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव चुनाव लड़ेंगी फिर अगले दिन खबर आई बदायूं के पूर्व सांसद और मुलायम सिंह यादव के भतीजे धर्मेंद्र यादव चुनाव लड़ेंगे। सपा बिना किसी तैयारी के यह चुनाव लड़ रही थी और जो नतीजा हुआ वह स्वाभाविक परिणति थी।

भाजपा का टिकट भी किसे मिलेगा यह कोई नहीं जानता था भाजपा में कई अच्छे दावेदार थे जिन्होंने संगठन में लगातार 30 35 साल काम किया है। वह भी टिकट चाहते थे। भाजपा में कुछ ऐसे लोग भी थे जो विश्वविद्यालय या महाविद्यालय छात्रसंघ के अध्यक्ष रह चुके थे लेकिन इन सारे लोगों को दरकिनार कर भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व ने भोजपुरी फिल्मों के अभिनेता दिनेश लाल यादव निरहुआ को टिकट दिया। इस पर भाजपा में अंदरूनी तौर पर घोर असंतोष था। कार्यकर्ताओं ने अपना असंतोष प्रदेश के नेताओं से हिम्मत के साथ प्रकट कर दिया था लेकिन अंत में उन्हें निरहुआ के प्रचार के लिए बाध्य होना पड़ा। कार्यकर्ताओं के लिए यह शुभ संकेत है कि उन्होंने टिकट के बंटवारे के सवाल पर अपना असंतोष व्यक्त करना शुरू कर दिया। इसका प्रभाव कम से कम पूर्वांचल के अन्य जिलों में तो पड़ना स्वाभाविक है।
बसपा के उम्मीदवार शाह आलम उर्फ गुड्डू जमाली दो बार मुबारकपुर से विधायक रह चुके हैं। विधानसभा के चुनाव से पहले उन्होंने बसपा छोड़ दी थी और सपा में शामिल हो गए थे। सपा ने उन्हें टिकट नहीं दिया तब वह ओवैसी की पार्टी से जुड़ गए। आश्चर्य की बात यह रही कि वह बसपा में फिर शामिल हो गए और बसपा ने उन्हें लोकसभा उपचुनाव के लिए टिकट भी दे दिया। ऐसा कहा जाता है गुड्डू जमाली का नोएडा में बड़ा कारोबार है और वह चुनाव में शायद सबसे पहले तैयारी में जुट गए थे और उन्होंने पैसा भी बहुत खर्च किया।
आजमगढ़ का आम आदमी भी इस बार अपने जिले का उम्मीदवार चाहता था चाहे वह सपा से आए या भाजपा से आए। इस बार लोगों ने खुलकर यह भी चर्चा की कि जिस आजमगढ़ से चंद्रजीत यादव, रामधन राम, बाबू विश्राम राय, तेज बहादुर सिंह, रामनरेश यादव जैसे कद्दावर नेता सांसद और विधायक हुआ करते थे। ऐसे लोगों को अगर राजनीतिक दल टिकट देकर आगे बढ़ने का मौका नहीं देंगे तो आजमगढ़ में ऐसे नेता फिर कभी पैदा नहीं होंगे और आज जिले में जो राजनीतिक शून्यता है उसे शायद लंबे समय तक भरा नहीं जा सकेगा।

चुनाव प्रचार में सपा प्रमुख अखिलेश यादव का ना आना चर्चा का विषय आज तक बना हुआ है। इसके पीछे क्या रहस्य है यह खुलने में शायद समय लगेगा लेकिन पार्टी में इसे लेकर निराशा जरूर है। निराशा की इस स्थिति से उबरने में पार्टी सक्षम है लेकिन ऐसा तभी होगा जब स्थानीय लोगों को जिन्होंने संगठन बनाने में काम किया है उन्हें मौका मिले।

भाजपा उम्मीदवार निरहुआ अपने प्रचार में खुली जीप में किसी हीरोइन के साथ घूम रहे थे। इसको लेकर नौजवानों में हलचल होना स्वाभाविक था और निरहुआ से अधिक हीरोइन को देखने के लिए भीड़ उमड़ रही थी। ऐसे में यह संभव है कि नौजवानों का वोट निरहुआ के पक्ष में कुछ न कुछ बढ़ा जरूर होगा।
भाजपा यह दावा जरूर कर रही है कि उसने यह सीट सपा से छीन ली है। इसके पहले भी भाजपा रमाकांत यादव को लड़ा कर जीत चुकी है। इस जीत में गुणवत्ता कितनी है आजमगढ़ का आम आदमी जानता है और ऐसे लोग आजमगढ़ के विकास की दिशा में क्या कर पाएंगे यह भविष्य बताएगा। विडंबना यह रही कि इस चुनाव में भी सामप्रदायवाद और जातिवाद का बोलबाला रहा। हाल ही में उत्तर प्रदेश के विकास के लिए निजी क्षेत्र ने 70 लाख करोड रुपए निवेश करने का वादा किया है। इसमें से आजमगढ़ के हिस्से शायद कुछ भी नहीं मिला है। इसकी चर्चा उम्मीदवारों और कार्यकर्ताओं में से किसी ने भी नहीं की। आजमगढ़ में विश्वविद्यालय प्रांगण का निर्माण भी बहुत धीमी गति से चल रहा है इसका निर्माण गुजरात की एक कंपनी कर रही है यह मुद्दा भी चुनाव में चर्चा का विषय नहीं रहा।

वास्तव में विकास संप्रदायवाद और जातिवाद के द्वंद में कोई मुद्दा नहीं होता। आजमगढ़ उपचुनाव से जो संदेश मिलते हैं वे संपूर्ण पूर्वांचल को एक नई दिशा दे सकते हैं बशर्ते की विभिन्न पार्टियों के कार्यकर्ता हिम्मत के साथ उम्मीदवार के सवाल पर अपनी राय खुल कर रखें और अपनी दावेदारी पेश करें।

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