प्रो०अनिल ने जब हिन्दी भाषा और साहित्य के सवाल पर बोला- कि कैसे आप की भाषा और साहित्य पर पूंजीवाद की खतरनाक जकड़न होने जा रही है, कैसे आप के मौलिक चिंतन और मनोभावों पर संचार माध्यमों की नियंत्रण और जकड़न होने जा रही है. कैसे न्यू मीडिया ( सोशल मीडिया और अन्य माध्यमों ) ने भारतीय उपमहाद्वीप में लोगों को एक मोबाइल फोन तक सीमित कर दुनिया मुट्ठी में कर लेने का दावा कर दिया है. कैस सूचना प्रौद्योगिकी, मानवीय चेतना के प्रकटीकरण के नाम जो वैश्विक मंच देने के नाम पर हमारी मौलिक संवेदना पर अमूर्त नियंत्रण की परियोजनाओं पर काम कर रहा है.
हिन्दी को वैश्विक पहचान मिल चुकी है- प्रो० पीके शर्मा
० संगोष्ठी में प्रोफेसर अनिल राय के विचार..
@ डॉ अरविंद सिंह
व्यक्तिगत परेशानियों में घिरा हुआ मन कल एक अरसे के बाद प्रफुल्लित सा हो गया.जब अपने शहर के नेहरू हाल में ‘साहित्य अनुरागी’ संस्था के हिंदी दिवस की पूर्व सन्ध्या पर ‘हिंदी भाषा और साहित्य पर संचार माध्यमों का प्रभाव’ विषयक संगोष्ठी में प्रोफेसर अनिल राय को बतौर मुख्य वक्ता सुन रहा था. वैसे अतिथियों के रूप में महराजा सुहेलदेव राज्य विश्वविद्यालय आजमगढ़ के कुलपति प्रोफेसर प्रदीप कुमार शर्मा, आजमगढ़ डायट के प्राचार्य -अमरनाथ राय और मुगलसराय चंदौली से हिन्दी विभागाध्यक्ष डा० इशरतजहां भी थी. लेकिन विषय के साथ न्याय और पकड़ प्रो राय ने ही किया.
सामने साहित्य अनुरागी आजमगढ़ बैठा था. सभागार की सभी सीटें एक साहित्यिक आयोजन में, जिसमें आधी, स्वयं आधी-आबादी से भरी हों, तिसपर से शिक्षक और शिक्षिकाओं से तो सहज ही कल्पना कर सकते हैं.
दरअसल साहित्यकारों और बौद्धिक समाज का यह जुटान काफी अरसे बाद एक मंच के आकर्षण में बंधा दिखाई दे रहा था. यह आयोजन संस्था और उसकी प्रमुख मनीषा मिश्रा और उनकी सास माँ मालती मिश्रा के साथ सहयोगियों का ही कमाल और कुशल संयोजन था.
बहरहाल विषय पर आते हैं.कार्यक्रम की विधिवत शुरुआत हो जाने के बाद ‘छोटे शहर की बड़ी काव्य संभावनाएं’ काव्य संकलन पुस्तक का विमोचन हुआ. जिसमें हमारे जिले की 25 उदीयमान और स्थापित महिला काव्य रचनाकारों की प्रतिनिधि रचनाओं को संकलन है. पुस्तक की सामाग्री कैसी है, यह तो पढ़ने के बाद ही मालूम चलेगी, लेकिन यह प्रयास निश्चित ही साधुवाद के योग्य है.
मंचीय खटकरम के बाद जब मंच गंभीरता की ओर बढ़ा तो सभागार में शांति छा गयी. शुरुआत अमरनाथ राय से हुई. अमरनाथ मूलतः कवि हृदय हैं, मौलिक और जमीन से जुड़े व्यक्ति हैं, पूर्वांचल की देसज माटी से उनके चरित्र और व्यक्तित्व का निर्माण हुआ है, गाजीपुर उनका मादरे- वतन है. इसलिए सोच और चिंतन भी मौलिक है. बोलें – संचार माध्यमों ने साहित्य को जहाँ वैश्विक मंच दिया, वहीँ रचनाकार की कागज के प्रति मोह खत्म किया दिया. चंद पंक्तियों को सोशल मीडिया पर डालकर वह अपनी मौलिकता बचाने का असफल प्रयास तो कर सकता है लेकिन बचा नहीं पा रहा है. उनकी ‘गंवार की डायरी’ निश्चित ही मौलिक और जमीन की तल्ख सच्चाईयों का आईना है.
कुलपति प्रोफेसर प्रदीप कुमार शर्मा एक एजूकेटर और प्रशासक के साथ कृषि वैज्ञानिक हैं. कुशल परिकल्पक हैं. उन्होंने इस भरे प्रशाल में आजमगढ़ से संवाद करते हुए विश्वविद्यालय के मूर्त और अमूर्त परियोजनाओं का खांका खींच, आजमगढ़ के भविष्य की तस्वीर जरूर खींच दी. भविष्य की दुनिया यदि ज्ञान की शक्ति से चलेगी तो उसमें इस सरजमीं का भी योगदान रहेगा.शिक्षा के इतने बड़े केन्द्र की आधारशिला से आजमगढ़ का मुस्तक़िल कैसा होगा, उसकी तस्वीर तो आज ही दिखनी शुरू हो चुकी है.
वैसे आजमगढ़ का अतीत कम शानदार नहीं रहा है. अबतक जो इस सरज़मी की वैश्विक पहचान बनी है, वह उसके अतीत की मेधा और योगदान के कारण ही ज्यादा है. उन्होंने कहा- आज हिन्दी को वैश्विक पहचान मिल चुकी है. यह दुनिया में एक संपर्क भाषा के रुप में स्थापित हो चुकी है.
इशरतजहाँ ने अपनी बातों को बड़े करीने से रखा. काव्य का आलंबन लेकर विषय को छूने का प्रयास जरूर किया, लेकिन संगोष्ठी का विषय हमारे समय का मौलिक चिंता और चिंतन था और है.
प्रोफेसर अनिल राय का मादरे- वतन भी नैयर- ए-आजम की यही सरजमी रही है, वेस्ली कालेज उनकी चेतना और चिंतन का विस्तार करने वाला केन्द्र रहा है और यह नेहरू सभागार उनके अपने गृह जनपद की विरासत, सामने उनके जनपद का बौद्धिक और साहित्यिक समाज उन्हें सुनने बैठा हो, तो गुरु गोरखनाथ की सरजमीं ( गोरखपुर विश्वविद्यालय)से आए प्रोफेसर के भी आत्मविश्वास को एक बार डिगा देता है कि- इस बौद्धिक समाज की बौद्धिक अपेक्षाओं पर उनका ज्ञान और बौद्धिक दृष्टि की संपदा उन्हें कितना संतृप्त कर पाएगी. यह स्वाभाविक भी था. उन्होंने इस बात को अपने शुरुआती भूमिका में ही एक चतुर वक्ता के मानिंद स्पष्ट कर दिया. हांलाकि बाद में जब उन्होंने बोलना शुरू किया तो पूरा सभागार बिल्कुल स्तब्धकारी शांति में उन्हें सुन रहा था
बीच-बीच में करतल ध्वनियों ने उनके उत्साह को बढ़ाया तो इस सभागार में कई नई स्थापनाएं होती चली गईं. प्रो०अनिल ने जब हिन्दी भाषा और साहित्य के सवाल पर बोला- कि कैसे आप की भाषा और साहित्य पर पूंजीवाद की खतरनाक जकड़न होने जा रही है, कैसे आप के मौलिक चिंतन और मनोभावों पर संचार माध्यमों की नियंत्रण और जकड़न होने जा रही है. कैसे न्यू मीडिया ( सोशल मीडिया और अन्य माध्यमों ) ने भारतीय उपमहाद्वीप में लोगों को एक मोबाइल फोन तक सीमित कर दुनिया मुट्ठी में कर लेने का दावा कर दिया है. कैस सूचना प्रौद्योगिकी, मानवीय चेतना के प्रकटीकरण के नाम जो वैश्विक मंच देने के नाम पर हमारी मौलिक संवेदना पर अमूर्त नियंत्रण की परियोजनाओं पर काम कर रहा है. प्रो० अनिल ने कहा- यदि दुनिया की समूची सूचना प्रौद्योगिकी और संचार माध्यमों पर यदि पूंजीवादी ताकतों का कब्जा होता जा रहा है, तो उसके आलंबन और सहारे चलने वाली भाषा और साहित्य पर उनका कब्जा कैसे नहीं होगा. यह वाजिब सवाल भी इस सभागार से उठने चाहिए. यह इन माध्यमों का नकारात्मक प्रभाव है,
इसके बिपरीत जब संचार माध्यमों के सार्थक प्रभाव को रेखांकित किया तो नई दृष्टि भी मिली. आज इन माध्यमों के कारण ही हम वैश्विक स्तर पर भाषा और उसके साहित्य को पहुँचा पा रहे हैं. पूरी दुनिया यदि आज ग्लोबल विलेज बनती जा रही हु तो वह सूचना प्रौद्योगिकी और संचार माध्यमों की ही देन है. आगे कहा कि – एक ही समय में दो बिपरीत संक्रियाएं होती हैं. जब सब कुछ समाप्त होता है, तब वही से नई शुरुआत भी होती है. जब सबसे बुरा वक्त चल रहा होता है, तो उसी समय सबसे बेहतर समय भी होता है कुछ नये सृजन के लिए.
यदि आप हिन्दी को मजबूत करना चाहते हैं तो सभी भारतीय भाषाओं को मजबूत करना होगा.