०देश के किसानों का मोदी सरकार के खिलाफ ‘दिल्ली कूच’
@ अरविंद सिंह
यह भारतीय लोकतंत्र की रीढ़ किसानों का ‘दिल्ली कूच’ है या इस देश की मौलिक चेतना का अपने अधिकारों के लिए भारत सरकार से सीधा संघर्ष. यह भारतीय किसानी और भारतीय ‘राजसत्ता’ की सीधी टकराहट है या मोदी सरकार के अहमं से देश के अन्नदाता की इस्पाती संघर्ष. यह मोदीराज के नये कृषि कानूनों की भारतीय किसानी के कंधों पर उठायी गई ‘शवयात्रा’ है या फिर सैकड़ों-हजारों किमी की यात्रा करके रायसीना की छाती पर चढ़ धरतीपुत्रों का ‘नई दिल्ली’ को चुनौती..या सत्ता के शिखर को उसे अंदर तक कंपा देने की अदभुत माद्दा की शुरुआती तस्वीर है. आखिर दिल्ली बार्डर पर खूले नीले आसमान तले मीलों लंबे काफिलों और डेरों में किसानों के तंबूओं का मिज़ाज क्या कहता है. क्या इसमें वही हिन्दुस्तान है, जो भारत के गांवों में बसता है, जो धरती की सीने को चीर उससे भी अन्न उपजा लेता है. जो जाड़ों की बर्फिली हवाओं और गर्मियों की तपती लू में भी देश की उदरपूर्ति करने के अपने राष्ट्रीय धर्म से नहीं डिगता.
दिसंबर की हांड कंपाती सर्दियों में पिछले 11 दिनों से पंजाब, हरियाणा, मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश के किसानों की ‘दिल्ली कूच’ के मायने आखिर क्या हैं. तो क्या यह भारतीय राजसत्ता के सबसे बड़े ताकत के प्रतीक ‘नई दिल्ली’ के ‘गुरूर’ और धरतीपुत्रों की गजब के ‘आत्मविश्वास’ के बीच दृश्य और अदृश्य संघर्ष चल रहा है.
भारत सरकार और किसानों के बीच चार-पांच दौर के बेनतीजा जंबों बैठक के बाद किसानों ने मोदी सरकार के कृषिमंत्री से साफ-साफ एक लाइन में बोल दिया कि- तीनों नये कानूनों के समाप्ति से कम कुछ भी स्वीकार नहीं, चाहे उन्हें छह महिने तक दिल्ली में डेरा डालना पड़े. यह आंदोलन केवल पुरुष किसानी भर की नहीं है, बल्कि आधी आबादी की हिस्सेदारी भी इस आंदोलन की ताकत है. घर-गृहस्थी के सामान और छह महीने के रसद के साथ पंजाब और हरियाणा से दिल्ली चले किसानों के आंदोलन को देश ही नहीं बल्कि विदेश से भी समर्थन मिल रहें हैं.भारतीय किसानी का यह फौलादी इरादा मोदी सरकार के लिए दुधारी तलवार बनती जा रही है.तीनों कानूनों की वापसी का मतलब मोदीराज के अहम को ठेस पहुँचना और वापसी नहीं होने अर्थ है, सरकार से किसानों की सीधी टकराहट का लंबा दौर. जो दिल्ली की परिधि से निकल राष्ट्रव्यापी हो भी सकता है.
8 दिसंबर के किसानों के भारत बंद के आह्वान पर देश की 11 से अधिक विपक्षी सियासी दलों और दर्जन भर ट्रेड यूनियनों के समर्थन से किसान सियासत के केन्द्र में आ गया है.
केशर की क्यारी से समंदर की लहरों तक किसान.. और उसकी मांग की समर्थन करती आवाजें देश से लेकर परदेस तक उठाने लगी हैं. दरअसल यह भारतीय किसान चेतना का फौलादी स्वरूप है, जो मौसम की मार सहकर भी धरती के सीने में अपनी फसल को बोना भी जानता है, और विपरीत परिस्थितियों में उस फसल को काटना भी जानता है. उसके लिए धरती, मात्र एक टुकड़ा भर नहीं है, बल्कि उसकी माँ है, उसकी जीवनयात्रा है, जो पीढ़ियों से पीढ़ियों तक उसके साथ चलती आयी है. जो उसके पूरे अस्तित्व की पहली.. दूसरी.. तीसरी..और आखिरी निशानी है. जिसको खोना, उसके अपने अस्तित्व को खो देना है, जिसे वह मरकर भी बचाएगा.. जिस तरह विपक्ष की राजनीति का एक लंबा सियापा भारतीय लोकतंत्र में पसर गया था, उसे भारतीय किसानों ने एक संजीवनी दे दी है और लोकतंत्र में अपनी मांगों के लिए आंदोलन कैसे किया जाना चाहिए, उसका उदाहरण भी प्रस्तुत किया है. उम्मीद है भारतीय लोकतंत्र इससे जीवंत होगा.. अंत में जनकवि बल्ली सिंह चीमा की क्रांतिकारी कविता ‘जमीन से उठती आवाज़’ की पंक्तियों में कहें तो..
ले मशालें चल पड़े हैं लोग मेरे गाँव के ।
अब अँधेरा जीत लेंगे लोग मेरे गाँव के ।
कह रही है झोपडी औ’ पूछते हैं खेत भी,
कब तलक लुटते रहेंगे लोग मेरे गाँव के ।
बिन लड़े कुछ भी यहाँ मिलता नहीं ये जानकर,
अब लड़ाई लड़ रहे हैं लोग मेरे गाँव के ।
कफ़न बाँधे हैं सिरों पर हाथ में तलवार है,
ढूँढने निकले हैं दुश्मन लोग मेरे गाँव के ।
हर रुकावट चीख़ती है ठोकरों की मार से,
बेडि़याँ खनका रहे हैं लोग मेरे गाँव के ।
दे रहे हैं देख लो अब वो सदा-ए-इंक़लाब,
हाथ में परचम लिए हैं लोग मेरे गाँव के ।
एकता से बल मिला है झोपड़ी की साँस को,
आँधियों से लड़ रहे हैं लोग मेरे गाँव के ।
तेलंगाना जी उठेगा देश के हर गाँव में,
अब गुरिल्ले ही बनेंगे लोग मेरे गाँव में ।
देख ‘बल्ली’ जो सुबह फीकी दिखे है आजकल,
लाल रंग उसमें भरेंगे लोग मेरे गाँव के ।