वाघा बॉर्डर की आँखों देखी : लब्ज़ और लिबास तो बदला-बदला अमृतसर में दिखा पर अर्थ में काशी के कबीर मिले

विनोद कुमार
लब्ज़ और लिबास तो बदला-बदला अमृतसर में दिखा पर अर्थ में काशी के कबीर मिले, वह भी उस स्वर्णमंदिर में जहां मूर्ति नहीं गुरु की पूजा करती जनता गुरुवाणी में राम और कबीर-कबीर कह रही थी।

जहां मैं भी अरदास के लिए हरमंदिर साहब के सामने खड़ा होकर,भाषा से अनभिज्ञ होते हुए लोगो से भाव जानने का प्रयास कर रहा था।जिस राम को नकारने में समूचा भारत लगा हुआ है,वहीं किसी जमाने मेें भारत से अपने को अलग देश की मांग करने वाले पंजाब ने अयोध्या के राम को सत्ता नही संस्कार का प्रतीक बताते हुए, ऑपरेशन ब्लूस्टार को जायज ठहराते हुए,हमसे कहने लगे कि भाषा के सवाल पर भारत मे सर्वप्रथम विरोध करने वाले आर्यसमाज का आज यहाँ अता पता तक नही हैं।
जिस काशी ने कबीर को छोड़ा,वह कबीर दमदमी टकसाल पर खड़े होकर कह रहे थे कि भाषा का उपयोग विद्वता के लिए नहीं विचारों के आदान प्रदान के लिए हो तो ज्यादा श्रेयस्कर होगा।
सवाल यहाँ यह उठता है कि जिस सनातन ने कबीर को काशी से भगाया,वहीं सनातन की रक्षा के लिए बना सिख पंथ आर्यसमाज को अस्वीकार करते हुए,कबीर को वाहे द फतह गुरु कबीर क्यों कह रहा है?जबकि दोनो का लक्ष्य लगभग एक ही है।
आर्यसमाज भी आडम्बर के खिलाफ लड़ तो रहा था,पर अपने को उसी समय श्रेष्ठ भी बता रहा था,यही उसकी गलती थी।वही गलती सन्त जरनैल सिंह भिंडरावाले भी कर बैठे।उसका नतीजा यह हुआ कि आज भी गुरुद्वारे(स्वर्णमंदिर) के दीवालों पर गोलियों के निशान बखूबी दिख रहे थे।
लाखों लोगो को बेवजह मारने वाले आतंकवादियों के सामने अपनी आवाज़ को खामोश रखने वाले प्रबुद्ध भारतीयों को उन विधवाओं की चीत्कार नही सुनाई दी,जिसके लिए भारतीय इतिहास उन्हें बुजदिल और कायर कहेगा।
कमोबेश वही हालात कश्मीरी पंडितों की है,जहां भारत का एक छोटा सा तबका उन मुसलमानों के साथ खड़ा हो रहा है,जिन सबने कश्मीरी पंडितों को उनकी सरज़मी से बेदखल तो किया ही,साथ ही उन्हीं की आंख के सामने उनकी बहू बेटियों से बलात्कार कर गोलियों से भून दिया।
अक्षर ज्ञान से सुसज्जित प्रबुद्ध लोगो! तुम्हें कैसा भारत चाहिए?जहां बंगाल में बंगाली रहे,पंजाब में पंजाबी रहे,बिहार में बिहारी रहे या भारत के हर प्रान्त में भारतीय रहे।
स्वर्णमंदिर में जब सेना का प्रवेश श्रीमती इंदिरा गांधी ने कराया तो भारत का बुजदिल बौद्धिक तपका उन्हें क्या-क्या नही कहा।उन बौद्धिकों की बात को अनसुनी करते हुए,अपनी जान को गवाते हुए स्वर्णमंदिर को आतंकवादियों से मुक्त कराने का जो काम किया उसके लिए राष्ट्र उनका सदैव कृतज्ञ रहेगा।
आज पंजाब में अमन चैन है,भारत के हर प्रान्त के लोग वहां व्यापार-मज़दूरी कर रहे हैं।बनारसी साड़ियों के साथ-साथ दक्षिण भारत का सागर रत्ना रेस्टोरेंट भी दिखा।
सागर रत्ना के तमिल मैंनेजर ने बताया कि मद्रास में भी कुछ साल पहले केशर दा ढाबा की एक शाखा खुली है।
लब्ज़ और लिबास भी कश्मीर को हमसे अलग करते हैैं,बस परिन्दों की तरह हर प्रदेश के लोग वहां जाना शुरू कर दे,उनकी समस्याओं का समाधान स्वतः हो जाएगा।
बौद्धिकों को बिधवा विलाप करने के लिए सरकार ने संविधान में कुछ लिख-पढ़ दिया है,वाघा बॉर्डर की आँखों देखी अगले अंक में
(विनोद कुमार,गांव,गरीब,गांधी) 

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