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गांव, कस्बों व चायपान की दुकानों पर आज भी कब्जा प्रिंट मीडिया का

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पिछले लगभग दो दशक से पक्ष विपक्ष दोनों जमात के नेताओं को इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में चेहरा देखना ज्यादा पसंद है. ANI हो तो बांछें खिल जाती हैं.
भले ही गोदी मीडिया का वर्चस्व हो लेकिन आज भी चाय पान की दुकानों, गांव के चौपालों पर प्रिंट मीडिया का स्थान बना हुआ है.
कार्यालयी व्यवस्था (जिसमें पत्रकार, आपरेटर,संपादकीय,विज्ञापन आदि) के अलावा अखबार के वितरण में भी रोजगार उपलब्ध था. कस्बों से लेकर शहर तक हाकरों की संख्या भी दोहरे शतक लगाती थी. गिरावट दोनों में आई है. नोटबंदी, चरणवंदना, कोरोना जैसी समस्याओं ने सच को लील लिया.
प्रिंट मीडिया अपना महत्व भूल गया है..दिल दिमाग पर देर तक यही छपता है लेकिन इसके अधिकांश जिम्मेदार भी डिजिटल हो गए हैं. आज ही एक अखबार के बनारस संस्करण ने सरकार की कथनी करनी को आईना दिखाने का साहस किया तो वह खबर वायरल हो गई और खूब शेयर हो रही.
निश्चित तौर से गिरावट का कारण आर्थिक ही है लेकिन मुझे लगता है कि प्रिंट मीडिया का स्वर्णिम दौर लौटेगा.
कल ही उत्तर प्रदेश की राजधानी में मान्यता प्राप्त पत्रकारों के संगठन का चुनाव हुआ.. कार्यकारिणी के अन्य पदों पर बदलाव हुआ लेकिन अध्यक्ष पद पर लगातार कई बार से पत्रकारों के सिरमौर का कब्जा फिर बरकरार रहा.
क्या यह संगठन उनकी भी आवाज बनेगा जो कस्बे से लेकर प्रदेश की राजधानी तक बिना मान्यता के पत्रकारिता कर रहे हैं. या फिर वही ढाक के तीन पात..अपनी अपनी ढपली अपना अपना राग.
✍️ ओम प्रकाश सिंह

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