काश! हर गांव को मिल जाए एक ऐसा डॉक्टर
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–अमरपाल सिंह वर्मा- स्वतंत्र पत्रकार
आजकल डॉक्टर मोटी तनख्वाहों पर काम करते हैं या फिर बड़े हॉस्पिटल खोलकर बैठते हैं, जहां अपार धन बरसता है। एमबीबीएस करने के थोड़े समय बाद सामान्य परिवार के युवाओं का धनाढ्य हो जाना आम बात है लेकिन ऐसे डॉक्टर भी हैं, जिनका उद्देश्य पैसा बनाना नहीं बल्कि गरीब और वंचित वर्ग के लोगों की सेवा करना है। ऐसे ही एक डॉक्टर हैं डॉ. महेन्द्रपाल सिंह शेखावत, जिन्होंने राजस्थान के एक गांव में नि:शुल्क सेवाएं देते हुए 50 साल बिता दिए हैं।
मानव सेवा की मिसाल बने डॉ. महेन्द्रपाल सिंह शेखावत का का जन्म झुंझुनूं जिले के गांगियासर गांव में खाते-पीते परिवार में हुआ। पिता खुफिया विभाग के अफसर थे। पुरखों की जमीन-जायदाद, पैसा, शौहरत सब कुछ था। शेखावत चाहते थे तो घर बैठ कर आराम से जीवन गुजारते लेकिन उन्होंने डॉक्टर बनकर गरीब की सेवा करना तय किया। एमबीबीएस की डिग्री लेते ही उन्होंने सेना ज्वाइन कर ली। ढाई साल बाद सेना छोडक़र वह हनुमानगढ़ में विख्यात डॉक्टर रूप सिंह राजवी के साथ काम करने लगे लेकिन थोड़े समय बाद ही उब गए। उनका मन तो किसी गांव में गरीबों, जरूरतमंदों को सेवाएं देने का था। डॉ. शेखावत सन् 1974 में पास के डबली राठान गांव मेंं चले गए और वहां क्लिनिक खोलकर लोगों का नि:शुल्क उपचार करने लगे। दस साल बाद 1984 मेंं उन्हें सरकारी नौकरी मिली तो उन्होंने पोस्टिंग के लिए डबली राठान के प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र को ही चुना। डॉ. शेखावत ने बीस सालों तक इसी गांव मेंं सेवाएं दीं और सन् 2003 में रिटायर हो गए।
डॉ. शेखावत सरकारी सेवा से भले ही मुक्त हो गए मगर गांव की सेवा से मुक्त होने का उनका कोई इरादा नहीं था। वह डबली राठान गांव मेंं ही स्थाई तौर पर बस गए। जीवन के 81 बसंत देख चुके डॉ. शेखावत का सिर्फ तन ही नहीं, मन भी इसी गांव में बसता है। डॉ. शेखावत को कई प्रमोशन-ऑफर मिले लेकिन उन्होंने सब ठुकरा दिए क्यों कि अगर ऑफर स्वीकारते तो उन्हें गांव छोडऩा पड़ता, जो उन्हें कतई मंजूर नहीं था।
डॉ.शेखावत के बेटे और पौत्र बड़े शहरों मेंं नौकरियां कर रहे हैं। वह अक्सर उन्हें अपने साथ आ कर रहने का आग्रह करते हैं मगर डॉ. शेखावत कभी रजामंद नहीं होते। वह अपनी पत्नी के साथ गांव में ही खुश थे। छह महीने पहले उनकी पत्नी का निधन हो गया। घर में वह अकेले रह गए मगर गांव का मोह फिर भी नहीं छूटा है।
अब उम्र हावी होने लगी है। स्वास्थ्य जनित कुछ समस्याएं भी आ रही हैं मगर फिर भी पुरानी दिनचर्या बरकरार है। सर्दी हो या गर्मी, सुबह जल्दी उठते हैं, नहा-धोकर तैयार होते हैं। घर के बरामदे में उनकी मेज-कुर्सी लगी है। स्टेथोस्कोप लेकर बैठ जाते हैं। बीमार लोग एक-एक कर आने लगते हैं। डॉक्टर साब सबको देखते हैं, जरूरत महसूस होने पर कुछ जांचें कराने के लिए भी कह देते हैं। फिर दवाइयां लिखकर दे देते हैं।
करीब बारह हजार की आबादी वाले इस गांव का प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र अब क्रमोन्नत हो कर सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र बन गया है। वहां भी अच्छे डॉक्टर हैं लेकिन बहुत से ग्रामीणों को लगता है कि उनका बुखार तब तक नहीं उतरेगा, जब तक डॉ. शेखावत इलाज नहीं करेंगे। गांव के बच्चे, बड़े, युवा, बूढ़े सब डॉ. शेखावत से ही इलाज करवा कर खुश होते हैं। इस बुजुर्ग डॉक्टर की खुशी भी इसी मेंं ही है। उनकी कोशिश रहती है कि एक बार कुर्सी पर बैठ जाएं तो कम से कम एक सौ मरीजों की नब्ज तो टटोल कर ही उठें। न केवल डबली राठान बल्कि आसपास के अन्य गांव और ढाणियों के लोग भी बीमार होने पर उनके पास ही आते हैं।
वह रोजाना करीब सौ मरीज देखते हैं। किसी से फीस नहीं लेनी। हां, मेज के पास गोशाला की दान पेटी जरूर रख छोड़ी है। जिसकी इच्छा हो तो वह पांच, दस, बीस, पचास रुपये दान पेटी में डाल दे। कोई दबाव नहीं। जो दे उसका भला-जो न दे उसका भी भला। हर महीने की पांच तारीख को दान पेटी में एकत्र हुई रकम गोशाला के सुपुर्द कर दी जाती है।
डॉ.शेखावत सुबह घर पर मरीजों को देखने मेंं व्यस्त रहते हैं और शाम को गांव में लोगों से बतियाना उनका पसंदीदा शगल है। इस दौरान वह पर्यावरण की फिक्र जरूर करते हैं। प्रत्येक गांववासी को पेड़ लगाने के लिए प्रेरित करते हैं। गांव मेंं बाहर से आए किसी व्यक्ति को जब डॉक्टर साब की सेवाओं का पता चलता है तो उसका मन उनके प्रति श्रद्धा से भर उठता है और लबों पर एक ही दुआ होती है-काश! हर गांव को ऐसा ही एक डॉक्टर मिल जाए।