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कृष्ण विसंगतियों के साधक हैं. वे रागी भी हैं, विरागी भी.

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उन्मुक्त कृष्ण

कृष्ण जन्माष्टमी पर विशेष 

कृष्ण विसंगतियों के साधक हैं. वे रागी भी हैं, विरागी भी. योगी भी हैं, भोगी भी. नर भी हैं नारायण भी. वे इकाई हैं और अनंत भी. रण दुर्मद भी है रणछोड़ भी. वे सहज संसारी हैं और असाधारण मित्र. विराट भी हैं सूक्ष्म भी. चक्रधर भी हैं मुरलीधर भी. वे नाचते हैं गाते हैं और रौद्र रूप भी दिखाते हैं. विसंगतियों को साधना आसान नहीं है पर उन्होंने सबको साधा इसलिए उनका व्यक्तित्व ज़बर्दस्त आकर्षण पैदा करता है.

कृष्ण अनूठे हैं. अबूझ हैं. अनोखे हैं. अजन्मा हैं. कृष्ण हुए तो अतीत में, लेकिन हैं भविष्य के. अभी भी कृष्ण मनुष्य की समझ से बाहर हैं. कृष्ण अकेले ही ऐसे देवता हैं जो धर्म की लौकिक और अलौकिक ऊंचाइयों पर रहते हुए भी गंभीर नहीं हैं, उदास नहीं हैं, कृष्ण नाचते हुए हैं. हंसते हुए हैं. गीत गाते हुए हैं. कृष्ण को छोड़ दें तो अतीत का सारा धर्म उदास, आंसुओं से भरा हुआ था. राम के जीवन में दुख ही दुख है. शिव रौद्र हैं. संहार पर उतारू हैं. पर हंसता हुआ धर्म कृष्ण का ही है.

जीसस के संबंध में कहा जाता है कि वह कभी हंसे नहीं. उनका उदास व्यक्तित्व और सूली पर लटका हुआ शरीर ही हमारे चित्त में अंकित है. महावीर या बुद्ध भी हंसते हुए दिखते नहीं है. कृष्ण अकेले ही इस जीवन की समग्रता को स्वीकार करते हैं. हालांकि बुद्ध के पास एक विरक्त और आत्मालोकित मुस्कान है लेकिन वो सांसारिक नहीं है, समायोजक और सामाजिक नहीं है. कृष्ण के अधरों पर आखेटित हंसी संवाद करती है, शामिल करती है.

कहते हैं कृष्ण देवकी की गोद में आते ही हंसे थे. इसलिए कृष्ण हंसती हुई मनुष्यता के प्रतिनिधि हैं. मथुरा से लेकर समूचे देश में हर साल कुछ मूढमति कृष्ण का जन्म कराते हैं. अरे भाई जन्मदिन जरूर मनाओ. पर जन्म क्यों कराते हो ? कृष्ण हर साल कैसे जन्म ले सकते हैं? कृष्ण तो अजन्मा हैं, यानी जो जन्म नहीं लेता, फिर जो जन्म नहीं लेता वह मृत्यु का वरण कैसे करेगा? जो मरेगा नहीं वह जन्म कैसे लेगा.

दरअसल कृष्ण देवत्व का एक भाव हैं जो निष्क्रिय होता है और जब उसकी ज़रूरत होती है वह प्रकट हो जाता है. तभी तो व्यास जी ने घोषित कर रखा है कि -”यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानम सृज्याहम।।” । दरअसल कृष्ण शरीर नहीं हैं, शरीर उसके लिए एक आवरण है. यही तो उन्होंने कुरुक्षेत्र में कहा था जिसे दुनिया ने गीता के तौर पर जाना. आज उन्हीं कृष्ण का जन्मदिन है.

कृष्ण के साथ अपना रिश्ता जितना आत्मीय है, किसी और देवता के साथ नहीं. बचपन से एक तादात्म्य है. सखा भाव है. राज-रंग, छल कपट, भक्ति, योग, भोग, राजनीति, चोरी, मक्कारी, झूठ, फरेब… जिस ओर नजर डालें, गोपाल खड़े मिलते हैं. वे हमारे नजदीक दिखते हैं. कृष्ण का यही अनूठापन उन्हें आज भी प्रासंगिक बनाता है. सच पूछिए तो कृष्ण ही हैं जो हर उम्र में हमउम्र लगते हैं. शायद इसीलिए आज भी जन्माष्टमी पर दिल बच्चा हो जाता है. इस उत्सव को मनाने में वैसा ही जोश हममें रहता है जैसा 40 बरस पहले था. आखिर क्यों? दस बरस की उम्र में तो धर्म के प्रति वैसी आस्था भी नहीं बनती. तो आखिर क्या है इस कृष्ण में जो हमेशा संगी-साथी सा दिखता है.

भविष्यभावी अतीत

कृष्ण हुए तो अतीत में, लेकिन हैं भविष्य के. उनका देवत्व धर्म की परम गहराइयों और ऊँचाइयों पर होकर भी गंभीर नहीं है. वो जिंदगी से उदास, निराश और भागा हुआ नहीं है. कृष्ण हर परिस्थिति में अकेले नाचते दिखते हैं. हँसते-गाते मिलते हैं. अतीत के सभी दुःखवादी धर्म की नींव पर. डॉक्टर लोहिया की मानें तो कृष्ण उन्मुक्त समाज के प्रथम पुरुष थे. यही उन्मुक्तता उन्हें देवत्व से कभी-कभी दूर ले जाती है. वे कायदे तोड़ते थे. ठीक उसी तरह जैसे सत्ता प्रतिष्ठान बुद्धि के जरिए नियम तोड़ता है. या कोई व्यक्ति सत्ता प्रतिष्ठान की क्रमबद्धता को खंडित कर नई व्यवस्था का रण आंगीकृत करता है. इसलिए आज भी कृष्ण की निरंतरता है.

सूर के कृष्ण गोवर्धनगिरिधारी, कुशल रणनीतिकार हैं. द्वारिका नरेश कम, नटखट माखनचोर ज्यादा हैं. इसीलिए हम बचपन में कभी रामनवमी या शिवरात्रि में उतने उत्साह से नहीं भरे-जितने जन्माष्टमी में. सात रोज पहले से तैयारियाँ शुरू हो जाती थीं. लकड़ी के बुरादे का रंग-रोगन होता था, घर से दस किलोमीटर दूर साइकिल से बिजलीघर जाकर खंगर (जला हुआ कोयला) लाते थे. गोवर्धन पर्वत की झाँकी बनाने के लिए. पूरे साल अपने जेबखर्च से पैसा बचा-बचाकर खिलौने खरीदना. हर बार एक नएपन के साथ. मेरी पत्नी बताती हैं कि ऐसी ही तैयारियाँ उनके यहाँ भी होती थीं. फर्क इतना था कि वे झॉँकी का सामान कार से ख़रीदने जाती थीं, मैं साइकिल से. वो सजावट के सामान खरीदकर लाती थीं और मैं जुगाड़ से. पर साइकिल और कार का यह अंतर कृष्ण का जन्मदिन मनाने के उत्साह को कहीं कम नहीं करता था.

यह आकर्षण मात्र इसलिए नहीं है कि देवताओं की श्रृंखला में इकलौते कृष्ण हैं, जो सामान्य आदमी के करीब हैं, बल्कि इसलिए है कि कृष्ण के जन्म के साथ ही उनके मारे जाने की धमकी है. यह धमकी उनके देवत्व को चुनौती देती है. जन्म के बाद प्रतिपल उनकी मृत्यु संभावी है. किसी भी क्षण मृत्यु आ सकती है, इसी आशंका में उनका बचपन बीतता है. कृष्ण ऐसी जिंदगी हैं, जिसके दरवाजे पर मौत कई बार आती है और हारकर लौटती है. जैसे आज के असुरक्षित समाज में पैदा होते ही मृत्यु से लड़ना आम आदमी की नियति है. इसलिए कृष्ण हमें अपने पास के लगते हैं.

वे कृष्ण ही थे, जिन्होंने माँ का मक्खन चुराने से लेकर दूसरे की बीवी हरने तक का काम किया. महाभारत में एक ऐसे आदमी से झूठ बुलवाया, जिसने कभी झूठ नहीं बोला था. उनके अपने झूठ अनेक हैं. सूर्य को छिपाकर नकली सूर्यास्त करा दिया ताकि शत्रु मारा जा सके. भीष्म के सामने नपुंसक शिखंडी खड़ा कर दिया ताकि बाण न चले. खुद सुरक्षित आड़ में रहे. उन्होंने मित्र की मदद स्वयं अपनी बहन को भगाने में की. यानी कृष्ण एक पाप के बाद दूसरा पाप बेहिचक करते हैं. उनके कायदे-कानून जड़ नहीं हैं. वह धर्म की रक्षा के लिए परिस्थितियों के अनुसार बदलते रहते हैं.

सदियों के अंतराल के बाद भी उनका बाँकपन, उनका अनूठा व्यक्तित्व हमें आकर्षित करता है. आज के संदर्भ में कृष्ण को समझना जरूरी है. मनुष्य की बनाई यह सभ्यता कृष्ण की समझ से सहज हो सकेगी, दुःखदायी नहीं रहेगी, निषेधवादी नहीं रहेगी. हमें समझ पड़ेगा कि जीवन आनंद है, उत्सव है, उसके विरोध में कोई परमात्मा नहीं बैठा है. धर्म की कट्टरता उस फोल्डिंग कुर्सी की तरह समझ में आने लगेगी, जिसकी जरूरत पड़ी तो फैलाकर बैठ गए, नहीं तो मोड़कर कोने में टिका दिया.

कृष्ण ही नहीं, उनकी बोली-बानी गीता, युद्धक्षेत्र में लिखी गई पहली पुस्तक है, जिसका मुकाबला दुनिया की कोई किताब नहीं करती. धर्म के दायरे से बाहर भी. कृष्ण सिर्फ रणकौशल के ही जानकार नहीं थे. वे रणनीतिकार और सत्ता प्रतिष्ठान की बारीकियाँ भी बखूबी समझते थे. वे रसिक भी थे और आनंदमार्गी भी. प्रेम के संयोग और वियोग दोनों ही अवस्थाओं से सीधे जुड़े थे. कृष्ण रम जाने का सारा कौशल जानते थे. एकाकार होना उन्हीं ने सिखाया.

नंदग्राम की भीड़ में गुमे नंद के लाल, 

सारी माया एक है, क्या मोहन क्या ग्वाल’

शरद पूर्णिमा की आधी रात को कृष्ण ने वृंदावन में सोलह हजार गोपिकाओं के साथ रास किया था. इस महारास की खासियत थी कि हर गोपिका को कृष्ण के साथ नाचने का आभास था. उनका आनंद अटूट था. ‘निसदिन बरसत नैन हमारे। सदा रहत पावस ऋतु हम पर जब ते स्याम सिधारे।’ वाली हालत से कौन नहीं गुजरा होगा अपनी किशोरावस्था में.

कृष्ण के मायने ही हैं, जिसे संसारी चीजें खींचती हों. यानी चुंबकीय व्यक्तित्व, आकर्षण का केंद्र. कृष्ण भक्त तो हैं ही और भगवान् भी हैं, इसलिए उनसे रिश्ता सीधा और सहज जुड़ता है. जीवन जीने में आनेवाली तमाम चुनौतियों के जवाब उनके पास वर्तमान सामाजिक संदर्भों में हैं. तंत्र की समस्याएँ, सत्ता के षड्यंत्र, रिश्तों की नाजुकता आज भी वैसी ही है, जो कृष्ण-काल में थी. इसीलिए कृष्ण तब भी प्रासंगिक थे, आज भी हैं और आगे भी रहेंगे.

जन्मदिन मुबारक हो माखन चोर.

वसुदेवसुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम्। देवकीपरमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्॥

चित्र – एम एफ हुसैन और राजा रवि वर्मा

(-हेमंत शर्मा, लेखक वरिष्ठ हैं )

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