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मानवीय मूल्यों का जीवंत बोध है जनजातीय संस्कृति एवं संस्कृति

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प्रो. साकेत कुशवाहा ( लेखक प्रसिद्ध, शिक्षाविद एवं राजीव गांधी केन्द्रीय विश्वविद्यालय, अरुणाचल प्रदेश के कुलपति है)
Gmail: saket.kushwaha@rgu.ac.in

आज विकास की इस घुड़दौड़ ने मानवीय मूल्यों और अपने अतीत में व्यतीत किए हुए उन क्षणों को भूलता जा रहा है। किसी भी समाज का अतीत बहुत महत्वपूर्ण होता है क्योंकि चेतना का संचार और आत्म गौरव की प्रतिष्ठा का विकास उसी से होता है। इसका तात्पर्य नहीं लिया जाना चाहिए ,शुद्ध अतीतवादी होने में तार्किक एकता नहीं हो सकती है और आधुनिक होने में भी तार्किकता नहीं हो सकती है। दोनों अपने समय और परिस्थितियों के आधार पर मनुष्य द्वारा विकास के पैमाने को प्रतिष्ठित करने के लिए इन शब्दों को विभिन्न रूप से विलक्षण शब्दावली के साथ गढ़ा गया है ‌। आदिवासी संस्कृति और समाज एक ऐसा समाज है जो अपने आत्म सम्मान और गौरव के लिए जाना जाता है एक ऐसा समाज जिसमें परिवर्तन तो होता है ,परंतु वह सांस्कृतिक मूल्यों के साथ किसी भी रूप में समझौता नहीं करते। उनकी संस्कृति और सभ्यता की एक अमिट छाप जो किसी को भी आकर्षित करने , सीखने और सिखाने के लिए उत्प्रेरित करती है। परंतु यह भी विवाद का विषय है कि आखिरकार मुख्यधारा वाला व्यक्ति किसे माना जाए क्या आज पूंजीवादी और उपभोक्तावादी आधुनिकता की घुड़दौड़ वाली जिंदगी को मुख्यधारा वाला माना जाए ? या प्रकृति के सुरम्य वातावरण में निवास करने वाले उस मनुष्य को मुख्यधारा वाला व्यक्ति माना जाए जो सदैव कर्मशील और आत्मसम्मान से ऊर्जावान होता है। आज विकास के नाम पर उनके कई प्रकार की पहचानों और संस्कृति को नष्ट किया जा रहा है।आदिवासी समाज में कई प्रकार की रीति रिवाज और कथाएं प्रचलित होती हैं, परंतु एक बार जो उन सबमें स्पष्ट रूप से देखने को मिलती है ।वह है प्रकृति प्रेम। यद्यपि , आदिवासी समाज प्रकृति पर निर्भर है फिर भी वह प्रकृति का दोहन सिर्फ इतना करता है कि हमारे आगे आने वाली पीढ़ी को भी समस्या का सामना ना करना पड़े ‌‌। शायद ! सतत विकास की प्रक्रिया आधुनिक मनुष्य ने उसी से सीखी होगी। उनका एक लंबा गौरव और इतिहास है ‌। जिसमें उनके योगदान को स्वतंत्रता के समय और स्वतंत्रता के बाद के समय के रूप में बस नहीं देख लेना चाहिए। संरक्षित संस्कृति और अपने मूल्यों से समझौता न करने वाले समाज के रूप में भी उन्हें देखे जाने की आवश्यकता है। आज तथाकथित मुख्यधारा वाली समाज यह सरकारें उनके विकास के लिए एवं विकसित करने के लिए करोड़ों अरबों रुपए खर्च कर रहे हैं। यह तो उचित प्रतीत होता है परंतु उनके प्राकृतिक संसाधनों का दोहन और व्यापक संख्या में उनका पुनर्वास यहां नया प्रश्नचिन्ह खड़ा हो जाता है। उनकी समाजों में कई प्रकार की ऐसे रीति रिवाज प्रचलित हैं जो आधुनिक दृष्टिकोण से ठीक नहीं लगते, परंतु उसके पीछे भी तार्किकता है और एक ऐसी जीवन शैली है जिसको विचार और मंथन किए जाने की आवश्यकता है। जैसे- फसल तैयार हो जाती है तो एक आदिवासी समाज में यह चलन है कि पहली फसल का दाना एक चबूतरे में एकत्रित होकर उसको पहले पूजा या प्रतिष्ठान करते हैं। इसके बाद ही उपयोग करते हैं। मध्यप्रदेश में और छत्तीसगढ़ में ऐसी बहुत सी जनजातियां है ।जो इस बात के लिए जानी जाती है कि भटके हुए व्यक्तियों को जंगल का सही रास्ता दिखाती है और उनके अधिक भटकाव को कम करते हैं साथ ही अपने निजी प्रबंधन के द्वारा उनको घर तक पहुंचाने की जिम्मेदारी में उठाते हैं।
आज जब औद्योगिक विकास के लिए खनिज सम्पदा और जंगल-पहाड़ के इलाके राष्ट्रीय अर्थ व्यवस्था के लिए अनिवार्यतः उपयोगी माने जा रहे हैं और ये सारी सहूलियतें इन्हीं आदिवासी अंचलों में सुलभ हैं तो क्या क्षेत्रीय या राष्ट्रीय हितों के लिए 10 प्रतिशत आदिवासियों को विस्थापित कर उनकी अपनी जीवन शैली, समाज- संरचना, सांस्कृतिक मूल्यों में बलात वंचित कर किया जाए? यानी आज यह सर्वोपरी आवश्यकता दिख रही है कि विकास की मौजूदा अवधारणा की एक बार फिर समीक्षा की जाए और नई आधुनिक व्यवस्था में जनजातीय समूहों के मानवीय अधिकारों की समुचित अभिरक्षा की जाए। तभी जनजातीय संस्कृति या उसकी परंपरा के विषय में हमारी चिंता को एक वास्तविक आधार सुलभ होगा। अन्यथा की स्थिति में इस उपभोक्तावादी समाज में उनके सांस्कृतिक मूल्य और जीवन शैली की पहचान को क्षति पहुंचेगी। बहुत से आदिम कबीलों में विवाह -विच्छेद और पुनर्विवाह का नियम है। इस संबंध में प्रायः स्त्री और पुरुषों के समान अधिकार होते हैं, क्योंकि बहुत से समुदाय ऐसे हैं, जिनमें लड़का और लड़की को समान रूप से एक दूसरे को चुनने का समान अधिकार होता है। कई आदिवासी समुदायों में मातृसत्तात्मक प्रथा है तो कई समुदायों में पितृसत्तात्मक- बावजूद इसके भी दोनों को समान अधिकार होता है। मध्य भारत में कुछ समुदायों में ‘घोटुल’ जैसी प्रथा प्रचलित है। इनमें प्रायः दहेज प्रथा जैसी आधुनिक समस्याओं का चलन नहीं है। भारत की जनसंख्या का लगभग 8.6% (10 करोड़) एक बड़ा भाग आदिवासियों का है। आज पूरे दुनिया में लगभग 90 देशों में 47.6 करो मूलनिवासी रहते हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा भी इनकी संस्कृत के संरक्षण के लिए प्रत्येक वर्ष कुछ विषय रखकर खास दिवस और त्योहार मनाने के लिए प्रेरित किया जाता है। आदिवासी भारतीय अर्थव्यवस्था को कई आधार पर मजबूत रखते हैं ‌। साथ ही आम नागरिकों के उन कई प्रकार की आवश्यक वस्तुओं को जुटाने का काम करते हैं जो बहुत ही जीवन के लिए उपयोगी है। भारतीय संविधान के भाग 8 में संथाली और बोडो दो आदिवासी भाषाओं को रखा गया है। संविधान के अनुच्छेदों में उनके लिए आरक्षण एवं अपनी पहचान को सुनिश्चित करने का अधिकार प्रदान किया गया है। इतने अधिकार ,योजनाओं और परियोजनाओं के पश्चात भी आज उनकी स्थिति में इतना बदलाव क्यों नहीं हुआ जितने की अपेक्षा की गई थी? कई प्रकार की नीतियों और लाभों से वंचित कैसे रह गए? यही कारण है कि उनमें कई प्रकार के असंतोष जन्म ले रहें हैं जिसका कारण उनके संपूर्ण अधिकार और योजनाओं का पूर्णतया लाभ ना मिल पाना ही हो सकता है। उनके संस्कृति को और पहचान हो संरक्षण देने की आवश्यकता नहीं है। इतने संबल है कि अपने मूल्यों को संरक्षित कर सकते हैं।
उनकी संस्कृति और सभ्यता एक अनूठी संस्कृति है जो अजेय है। आज भी यह आधुनिक मनुष्य को बहुत कुछ सिखाती है। उनकी प्रगति और उन्नति के नाम पर उनकी संस्कृति को नियंत्रित नहीं बल्कि प्रबंधित करने की आवश्यकता है। उनके विकास के लिए सरकार को कई अन्य रुकी हुई परियोजनाओं का संचालन करना चाहिए। साथ ही जो परियोजनाएं संचालित की जा रही हैं, उन पर भी विचार करने की जरूरत है कि उनका क्रियान्वयन व्यवहार में हो रहा है या नहीं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 ने आदिवासी शिक्षा और उनकी संस्कृति के संबंध में विभिन्न संभावनाएं प्रदान की हैं। यह शिक्षा नीति आदिवासियों के मूल्यों और भाषाओं की रक्षा करती है और मातृभाषाओं को बढ़ावा देती है, जो सरकार की तरफ से आदिवासियों के लिए एक आवश्यक कदम है। मोदी सरकार ने जनजातीय मामलों के मंत्रालय के लिए वित्तीय वर्ष 2023-24 में बजट परिव्यय में आदिवासियों के लिए विभिन्न नीतियां शुरू की हैं, जो वित्तीय वर्ष 2022-23 की तुलना में 70.69% बढ़कर 12461.88 करोड़ रुपये हो गई प्रधानमंत्री ने जनजातीय गौरव दिवस पर लगभग 24,000 करोड़ रुपये के बजट के साथ पीएम जनजातीय आदिवासी न्याय महाअभियान पीएम-जनमन का शुभारंभ किया। भारत के राष्ट्रपति ने ओडिशा के कुलियाना में एकलव्य मॉडल आवासीय विद्यालय का उद्घाटन किया; प्रधानमंत्री ने राजस्थान में छह EMRS का उद्घाटन किया। जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने 1 अप्रैल 2023 से 27 दिसंबर 2023 तक DBT के माध्यम से 32.22 लाख आदिवासी छात्रों को छात्रवृत्ति वितरित की। इससे जनजातीय क्षेत्रों में शिक्षा का विकास हो सकेगा।

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