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यह वैचारिक टकराहट भी उस अमरपक्षी ‘फिनिक्स’ की तरह हैं, जो कभी खत्म नहीं होगी!

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जो नहीं बदलेगा वह मारा जाएगा!

@डा०अरविंद सिंह 

समर्थन और प्रतिरोध की संस्कृति एक समानांतर चलने वाली सतत प्रक्रिया है। लगभग हर दौर में समाज के भीतर से किन्हीं विचार धारा के समर्थन में यदि आवाज़ें उठती हैं तो, ठीक उसी दौर में उसी समाज के अन्दर से उस वैचारिकता के प्रतिरोध में भी स्वर फूट पड़तें हैं। यह एक जीवंत और मानवीय समाज का नैसर्गिक और मौलिक गुण होता है। यह दोनों प्रक्रियाएं समानांतर ढंग से अहर्निश चलती रहती हैं। सच कहें तो जिन्दा समाज, समर्थन और प्रतिरोध को समान रुप से पालता है।

 दरअसल यही लोकतंत्र है और यही लोकतंत्र की खूबी है। समाज राजनीतिक हो या सांस्कृतिक, उसके भीतर तो निर्माण और ध्वंस, मिलन और विछोह, विचारों का जन्म और मृत्यु या यूं कहें कि विचाराधाराओं का टकराव तो चलता ही रहता है। यही वैचारिक द्वंद तो जिन्दा समाज की निशानी है। राजनीतिक रुप में ही देखें तो 2014 से पहले जिस राजनीतिक सत्ता की कार्य-संस्कृति का विरोध सड़क से लेकर संसद तक होता था, विरोध जिस वैचारिक संगठन ने किया वह 2014 से निरंतर सत्ता में है और जो सत्ता में थें, आज वह विचारधारा विपक्ष में है। विपक्षी वैचारिक संगठन आज सत्ता का प्रतिरोध कर रही है। प्रतिरोध का यह स्वर निरंतर चलता रहेगा।

इसको ऐसे भी समझ सकते हैं, जो मीडिया 2014 से पहले था, वह आज नहीं है, वह सत्ता के दमनात्मक ध्येय का शिकार भले हो गया,

लेकिन ठीक इसी समय उसके समानांतर एक प्रतिरोध का मीडिया विकसित हो रहा है। जब मुख्य धारा का मीडिया जो सत्ता प्रतिष्ठान से सवाल करती थी, वह मृतप्राय सी हो गई या कर दी गई, तो ठीक इसी समय एक असंभव सा प्रतिरोध की मीडिया का जन्म हुआ। जो समानांतर ढंग से विकसित होती चली जा रही है। यह नई मीडिया, सोशल मीडिया बन चुकी है। 7-8 साल पहले तक सोशल नेटवर्क को गंभीरता से नहीं लिया जाता था, आज वही सोशल प्लेटफॉर्म मुख्यधारा की मीडिया का विकल्प बनता जा रहा है।

दरअसल यही प्रतिरोध की संस्कृति का विकसित होते चले जाना है। यह मीडिया के भीतर का समर्थन और प्रतिरोध का स्वरूप है। यह प्रक्रिया सतत और समानांतर है।

 इसलिए समाज में कुछ भी स्थायी और स्थिर नहीं रहता है। इसलिए उम्मीद और नैराश्य का संतुलन बेहद जरुरी है। वैसे भी हम उस मिथकीय समाज के हिस्से हैं जिसमें एक अमरपक्षी फिनिक्स की मान्यता है, उस अमनपक्षी की खासियत यह है कि एक दिन वह स्वयं जंगल में सूखी लकडी की ढेर पर बैठ जाती है और उसकी आग में जल कर राख में बदल जाती है, फिर उसी राख से पुनर्जन्म लेती और अमर पक्षी बन जाती है। राजनीतिक विचार भी उसी अमर पक्षी की तरह है, जो समाप्त नहीं होगी, बस उसका स्वरूप बदलता जाएगा। जो नहीं बदलेगा वह मारा जाएगा!

( लेखक वरिष्ठ पत्रकार और संपादक है)

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